सोमवार, 30 जून 2014

माँ (परमगुरु, परब्रम्ह, परमात्मा, ब्रह्माण्डस्वरूपी ) : Maa : Sanjay Mehta Ludhiana










पानी के बिना नदी ,
अतिथि के बिना आँगन ,
स्नेह के बिना सम्बन्धी ,
पैसे के बिना ज़ेब , """"""और"""""
माँ (परमगुरु, परब्रम्ह, परमात्मा, ब्रह्माण्डस्वरूपी) के बिना जीवन बेकार है !
मां की याद ऐसे आती है जैसे आती है महक बाग के किसी कोने से

कोने में खिले किसी फूल से जैसे आती है माटी-गंध
आषाढ़ की पहली बारिश में आंगन की भीगी हुई काली मिट्टी से- ठीक ऐसे ही आती है मां की याद

कभी कभी जब कुछ भी नहीं होता करने को सोचता हूं कितने सपने लगते होंगे एक ताजमहल बनाने के लिये....लोग कहते हैं जिनके पास जितने सपने हैं उतने ही सपनों से बनाया जा सकता है ताजमहल...लोग तो यहां तक कहते हैं सिर्फ एक ही सपना काफी है ताजमहल बनाने के लिये !

मां के पास सपने ढेरों थे मगर दुर्भाग्य ताजमहल एक भी नहीं ऐसा क्यों ! ?
माँ तो बस माँ ही होती है .
बच्चो को भरपेट खिलाती खुद भूखी ही सोती है
बच्चों की चंचल अठखेली देख देख खुश होती है
बचपन के हर सुन्दर पल को बना याद संजोती है
देख तरक्की बच्चों की वो आस के मोती पोती है
बच्चों की खुशहाली में वो अपना जीवन खोती है
बच्चों की बदली नज़रों से नहीं शिकायत होती है
जब-जब झुकता सर होठों पर कोई दुआ ही होती है

धूप कड़ी सहकर भी माँ तुम, कभी न हारी यौवन में,
धरम तुम्हारा खूब निभाया, तुमने अपने जीवन में !
सहम रही ममता पलकों में, नज़र तुम्हारी झुकी-झुकी,
तड़प रही है धड़कन भी अब, साँस तुम्हारी रुकी-रुकी ।
न्योता दिया बुढ़ापे ने अब तुमको अपने आँगन में !

गूँज रही कानों में मेरे वही तुम्हारी मुक्त हँसी,
आज कराहों में भी तो है छुपी हुई मुस्कान बसी !
हाय जिंदगी सजी-सजाई, बीती कितनी उलझन में !

टूट गए कुछ सपने तो क्या, रात अभी भी बाकी है,
और नए कुछ सज जाएँगे, प्रात अभी भी बाकी है ।
ढलती संध्या में भर लो तुम जोश नया अपने तन में !

पूछता है जब कोई कि
इस दुनिआ में मोहब्बत है कहाँ..?
मुस्कुरा देता हूँ मै,
और याद आ जाती है माँ










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