शनिवार, 25 जनवरी 2014

शरणागत : Sharnagat : Sanjay Mehta Ludhiana








शरणागत


जिधर देखता हुँ भोले बाबा पाता हुँ तुमको ही मुस्काते
आँखों में आकर बैठे हो , भोले बाबा पास क्यों नहीं आते
हो जाता हूँ मै वियोग में , जब विक्षिप्त व्याकुल सा
तब आप भोले बाबा पास क्यों नहीं आकर समझाते?
घूँट आंसुओ के पी-पीकर रहता हु मै प्यासा
भोलेबाबा प्रेमामृत क्यों नहीं पिलाकर, मेरी प्यास बुझाते ?
क्षुधा-गर्सित मै कबसे आगे, हाथ पसार रहा हुँ
दया दृष्टि की भूख भोले बाबा क्यों करके नहीं मिटाते ?
भूखा - प्यासा मै विक्षिप्त हुँ , आया भोले बाबा शरण तुम्हारे
तब भी क्यों मुझको "संजय" नाथ ! नहीं अपनाते ?

हर हर महादेव . जय जय माँ जय जय माँ










शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

श्री शिव और श्री राम - नाम : Shree Shiv or Shree Ram Naam : Sanjay Mehta Ludhiana









श्री शिव और श्री राम - नाम
पद्मपुराण(उत्तर खण्ड, अध्याय ७२ , श्लोक ३३४ ) में यह कथा है
एक दिन पार्वती जी ने महादेव जी से पूछा -'आप हरदम क्या जपते रहते है ?'

उत्तर में महादेव जी ने विष्णु सहस्रनाम कह गये।

अंतमे पार्वती जी ने कहा 'ये तो एक हजार नाम आपने कहे। इतना जपना तो सामन्य मनुष्य के लिए असम्भव है। कोई एक नाम कहिये जो सहस्त्रो नामोके बराबर हो और उनके स्थान में जपा जाए '

इस पर महादेवजी जे कहा -

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने । ।

राम राम शुभ नाम रटि, सबखन आनंद - धाम
सहस नाम के तुल्य है , राम नाम शुभ नाम

फिर इसी पुराण के उत्तर खण्ड अध्याय २७० श्लोक ४० में शिवजी श्री राम जी से कहते है

मरने के समय मणिकार्णिका -घाट पर गंगा जी में जिस मनुष्य का शरीर गंगाजल में पड़ा रहता है उसको मै आपका तारक-मात्र देता हु जिससे वह ब्र्हम में लीन हो जाता है अब कहिये जय माता दी जी











सोमवार, 20 जनवरी 2014

अर्जुन की शक्ति उपासना : Arjun ki Shakti Upasna: Sanjay Mehta Ludhiana








अर्जुन की शक्ति उपासना



महाभारत के समय कुरुक्षेत्र में जब भगवान श्री कृष्ण जी कौरव सेना को युद्ध के लिए उपस्थित देखा तो उन्होंने अर्जुन से उनके हित के लिए कहा -
हे महाबाहु अर्जुन ! तुम शत्रुओं को पराजित करने के निमित्त रनभिमुख खड़े होकर पवित्र भाव से दुर्गा (शक्ति) का स्तवन करो

संग्राम में बुद्धिमान वसुदेवनंदन के ऐसा कहने पर अर्जुन रथ से उतर पड़े और हाथ जोड़कर दुर्गा का ध्यान करते हुए इस प्रकार स्तवन करने लगे -

'हे सिद्ध-समुदाय की नेत्री आर्ये! तुम मंदराचल के विपिन में निवास करती हो , तुम्हारा कौमार(बरह्मचर्य) व्रत अक्षुण्ण है , तुम काल - शक्ति एवं कपाल - धारिणी हो , तुम्हारा वर्ण कपिल और कृष्णपिन्गल है तुम्हे मेरा नमस्कार। भद्रकाली तथा महाकाली रूप में तुम्हे नमस्कार। अत्यंत कुपित चण्डिकारूप में तुम्हे प्रणाम। हे सुंदरि! तुम्ही संकटो से पार करनेवाली हो। तुम्हे सादर नमस्कार। तुम मोर-पंख की ध्वजा धारण करती हो और नाना भांति आभूषणो से भूषित रहती हो। हे महाभागे ! तुम्ही कात्यायनी , कराली , विजय तथा जया हो , अत्यंत उक्त शूल तुम्हारा शस्त्र हो , तुम खड्ग तथा चरम धारण करती हो। हे ज्येष्ठे ! तुम गोपेन्द्र श्री कृष्ण जी की छोटी बहिन और नन्दगोप के कुल की कन्या हो। हे पीताम्बरधारिणी कौशिकी ! तुम्हे महिषासुर रक्त सदा ही प्यारा है , तुम्हारा हास उग्र और मुख गोल चक्रके सामान है, हे रणप्रिय! तुम्हे नमस्कार है ! उमा , शाकम्भरी, माहेश्वरी, कृष्णा ,कैटभनिशानी, हिरण्यक्षी,विरूपाक्षी और धूमाक्षी आदि रूपोमे तुम्हे मेरा प्रणाम। हे देवि ! तुम्हे वेद - श्रवण से होनेवाला महान पुण्य हो , तुम वेद एवं ब्रह्मणो की प्रिय तथा भूतकाल को जाननेवाली हो। जम्बूद्वीप की राजधानियों और मंदिरो में तुम्हारा निवास-स्थान है। हे भगवति ! कार्तिकेजननी , हे कान्तरवासिनी! दुर्गे। तुम विध्याओं में महाविध्य और प्राणियों में महानिन्द्र हो। हे देवि तुम्ही , सवधा, कला, काष्ठ , सरस्वती , सावित्री , वेदमाता और वेदांत आदि नामो से कही जाती हो। हे महादेवि! मैंने विशुद्ध चित्त से तुम्हारी स्तुति की है , तुम्हारे प्रसाद से रणक्षेत्र में मेरी सदा ही विजय हो , बीहड़ पथ , भयजनक स्थान , दुर्गम भूमि , भक्तो के गृह तथा पातळ - लोक में तुम निवास करती हो और संग्राम में दानवो पर विजय पाती हो। तुम्ही जम्भनी (तंद्रा) , मोहिनी (निंद्रा), माया, लज्जा , लक्ष्मी , संध्या , प्रभावती, सावित्री तथा जननी हो , तृष्टि , पुष्टि , धृति तथा सूर्य भी तुम्ही हो। तुम्ही भूति-मानो की भूति (ऎश्वर्या ) हो और समाधि में सिद्ध तथा चारणजन तुम्हारा ही दर्शन करते है।

इस प्रकार स्तुति करने के अननर मनुष्यो पर कृपा रखने वाली भगवती दुर्गा अर्जुन की भक्ति को समझकर भगवान श्री कृष्ण के सामने ही आकाश में स्थित होकर बोली -
हे पांडुनंदन ! तुम सवयं नर हो और दुर्द्धर्ष नारायण तुम्हारे सहायक है , अत: तुम थोड़े ही समय में शत्रुयों पर विजय प्राप्त कर लोगे . रण में शत्रुओं की कौन कहे साक्षात इंद्र भी तुम अजेय हो - ऐसा कहकर वह वरदायिनी देवी उसी क्षण अंतर्हित हो गई (महाभारत , भीष्मपर्व) (संजय मेहता )










शनिवार, 18 जनवरी 2014

भवानी - स्तुति : Bhawani Stuti : Sanjay Mehta Ludhiana











हे शैलन्द्रतनये , शास्त्र एवं संत यह कहते है कि तुम्हारे पलक मारते ही यह संसार प्रलय के गर्भ में लीन हो जाता है पलक खोलते ही यह फिर से प्रकट हो जाता है , संसार का बनना और बिगड़ना तुम्हारे लिए एक पलक का खेल है , तुम्हारे एक बार पलक उघाड़ने से यह संसार खड़ा हो गया और एकबारगी नष्ट ना हो जाए , मालूम होता है , इसलिए तुम कभी पलक गिराती ही नहीं , सदा निनिर्मेष दृष्टि से अपने भक्तो कि और निहारती रहती हो। अब कहिये जय माता दी जी



'हे शिवे, अधखिले नीलकमल के समान कांतिवाले अपने विशाल नेत्रों से तुम्हारे सुरमुनिदुर्लभ चरणो से बहुत दूर पड़े हुए मुझे दीन पर भी अपनी कृपापियूष की वर्षा करो। तुम्हारे ऐसा करने से मै तो कृतार्थ हो जाऊँगा और तुम्हारा कुछ बिगड़ेगा भी नहीं। क्युकि तुम्हारी कृपा का भंडार अटूट है , मुझ पर कुछ छींटे डाल देने से उसका दिवाला नहीं निकलेगा माँ। फिर तुम इतनी कंजूसी किसलिए करती हो माँ , क्यों नहीं मुझ संजय को एक बार ही सदा के लिए निहाल कर देती , चंद्रमा अपनी शीतल किरणो से सभी जगह समान रूप से अमृत वर्षा करता है। उसकी दृष्टि में एक वीरान जंगल और किसी राजाधिराज की गगनचुम्बिनी अट्टालिका में कोई अंतर नहीं है। फिर तुम्ही मुझ दीन पर क्यों नहीं ढरती हो माँ , मुझ से इतना अलगाव क्यों कर रखा है माँ ? क्या इस प्रकार वैभव तुम्हे शोभा देता है माँ ? नहीं , नहीं माँ , कदापि नहीं , अब कृपया शीघ्र इस दीन को अपनाकर अपने शीतल चरणतल में आश्रय दो माँ , जिससे यह संजय मेहता सदा के लिए तुम्हारा क्रीतदास बन जाए , तुम्हे छोड़कर दूसरी और कभी भूलकर भी ना ताके माँ। जय माता दी


घी , दूध , अंगूर अथवा शहद का स्वाद कैसा है , और उनके स्वाद में क्या - क्या अंतर है -- इसे हम शब्दो द्वारा अलग-अलग करके किसी प्रकार भी नहीं समझा सकते , चाहे हम कितने ही पंडित और शब्दशास्त्री क्यों ना हो , इसका तो हम रसनेन्द्रिय के द्वारा अनुभव ही कर सकते है , दूसरे को समझा नहीं सकते। इसी प्रकार , हे देवि , तुम्हारी अनुपम छवि का कोई वर्णन नहीं कर सकता , वह तो केवल परमशिव के प्रत्यक्ष का ही विषय है , सौंदर्य की तो बात ही क्या , तुम्हारे और -और गुणो का भी कोई वर्णन नहीं कर सकता। वेद और उपनिषद भी हार मान जाते है 'नेति, नेति कहकर ही अपना पिंड छुड़ाते है -- जय माता दी जी


'संसार में लोग अनेक प्रकार के गुणो से युक्त पत्तोवाली लता का ही आदरपूर्वक सेवन करते है , परन्तु मेरा अपना मत तो यह है कि जगत में सब लोगो को अर्पणा (बिना पत्तो की बेल अर्थात देवी पार्वती , जो इस नाम से प्रसिद्ध है ) का ही सेवन करना चाहिए, जिसके संसर्ग से पुराना स्थाणु (ठूंठ अर्थात देवाधिदेव महादेव , जो संसार के आदिकारण होने से सबसे पुराने तथा सर्वगत अक्रिय , अपरिणामी एवं निर्विकार होने के कारण 'स्थाणु' अर्थात अविचल कहलाते है ) भी मोक्ष रूपी फल देने लगता है , तातपर्य यह है कि 'सदाशिव' नाम से अभिहित निर्गुण परमात्मा सर्वथा क्रियाशून्य होने से उनके द्वारा अथवा उनकी कृपा से मोक्ष आदि फल की प्राप्ति असम्भव है , उनके शक्तिसमन्वित अर्थात सगुण एवं सक्रिय होने पर ही उनके द्वारा इस प्रकार आदान - प्रदान की क्रिया सम्भव है। जय माता दी जी



'हे देवि, मुझ शरणागत पर शीघ्र ही अपने कृपाकटाक्ष का निक्षेप कर मुझे कृतकृत्य करो। माना कि मेरा आचरण साधुओंके से नहीं है , किन्तु मै तुम्हारी शरण में तो चला आया हु। क्या शरण में आये हुए कि तुम्हे उपेक्षा करनी चाहिए ? यदि शरण में चले आने पर भी शरणार्थी के सम्बन्ध में तुम यह विचार करोगी कि उसके आचरण उत्तम है या नहीं और मुझ जैसे मंद आचरण वाले से बेरुखी का बर्ताव करोगी माँ तो फिर तुमसे और दूसरे देवताओं में अंतर ही क्या रह गया माँ। कल्पवृक्ष के नीचे चले जाने पर भी यदि किसी की इच्छा पूरी ना हो तो फिर उसमे और साधारण वृक्षो में क्या अंतर है माँ ? कल्पवृक्ष का धर्म ही है अर्थार्थी की कामना को पूर्ण करना . फिर तुम अपने धर्म को कैसे छोड़ सकती हो माँ। तुम्हे अपने विरद की रक्षा के लिए ही मेरी बाहँ पकडनी ही होगी माँ , मुझ संजय को अपने शरण में लेना ही होगा माँ। यदि मेरा परित्याग करती हो माँ तो साथ-ही-साथ अपनी शरणागतवत्सलता का बाना भी छोड़ना होगा माँ , जय माता दी जी। । माँ प्यारी माँ। … जय माँ वैष्णो रानी। । माँ माँ माँ


'हे उमे , हे लम्बोदरजननी , मुझे तुम्हारे चरणकमलो का ही पूरा - पूरा भरोसा है , अन्य किसी देवता का सहारा नहीं है माँ , फिर भी तुम्हारा ह्रदय यदि मेरे प्रति दयार्द्र नहीं होता तो मै अवलम्ब्हीन किस की शरण में जाऊँगा। सब और से मुंह मोड़कर तो तुम्हारा आश्रय गृहण किया है , तुम्हे यदि मुझे दुत्कार दोगी माँ तो फिर मुझे कौन अपनी शरण में लेगा। अत: मुझ निराश्रय को आश्रय देना ही होगा माँ। जय श्री राम जय माता दी जी



'पारसमणि का सपर्श पाते ही लोहा तत्काल सोना बन जाता है और नाले का गन्दा पानी भी जगत्पावनी गंगा जी की धारा में मिलकर सवयं जगत्पावन हो जाता है। फिर एनेक प्रकार के पापों से कलुषित हुआ मेरा मन क्या तुम्हारे प्रेम को प्राप्त करके भी निर्मल नहीं होगा माँ , अवश्य होगा माँ। ' महात्मा सूरदास जी ने भी अपने एक पद में इसी प्रकार के भाव प्रकट किये है। वे कहते है

एक नदिया , एक नाल कहावत , मैलो नीर भरो।
दोउ मिलकै जब एक बरन भयो , सुरसरि नाम परो। ।
एक लोहा पूजा में राख्यो , एक घर बधिक परो।
पारस गुण-अवगुण नहीं चितवै , कंचन करत खरो। ।

अब कहिये जय माता दी जी



'तुम्हारे अतरिक्त जो दूसरे देवता है उनके द्वारा उनके उपासको को इच्छित फल की प्राप्ति हो ही, ऐसा नियम नहीं है , क्युकि प्रथम तो वे सर्वसमर्थ नहीं है , वे अपनी अपनी शक्ति के अनुसार ही अपने उपासको की इच्छा को पूर्ण कर सकते है। अपनी सामर्थ्य से अधिक वे नहीं दे सकते। फिर जो कुछ भी वे देते है उसके लिए मूल्य भी पूरा-पूरा वसूल करते है। मूल्य पूरा अदा ना करने से अथवा साधन में किसी प्रकार की त्रुटि रह जाने पर अथवा विधि में वैगुण्य होने से वे इच्छित फल , सामर्थ्य होने पर भी , नहीं देते। तुम्हारी बात कुछ दूसरी ही है माँ . तुम तो अपने भक्तो को उनकी इच्छा से अधिक भी दे सकती हो। किसी भक्त ने अपने भगवान् के प्रति कहा है --

'हो तुषित आकुल अमित प्रभु, चाहता जो तुमसे नीर।
तुम तृषाहारी अनोखे उसे देते सुधाक्षीर। ।



बात यह है कि हम अल्पज्ञ जीव तुम्हारी अतुल सामर्थ्य को ना जानकार तुमसे बहुत छोटी - छोटी चीजे मांग बैठते है , किन्तु तुम इतनी दयालु हो माँ कि हमें आशातीत फल प्रदान करती हो। तुम सर्वज्ञ हो , अत: हमारी आवश्कताओं को भलीभांति समझकर हमारे लिए जो उचित होता है वही करती हो माँ। और देवता तो हमारी सांसारिक इच्छाओ को पूर्ण करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते है किन्तु तुम हमारी सांसारिक कामनाओ को भी पूर्ण करती हो माँ और साथ ही साथ अपनी विमल भक्ति भी देती हो माँ।


ब्र्ह्मादिक पूर्वजोंने तुममे और अन्य देवताओ में यही अंतर बताया है। इस लिए मेरा मन रात-दिन तुम्हारा ही चिंतन करता रहता है माँ , तुम्हे से लौ लगाये हुए है। हे परमेश्वरी! अब जैसा उचित समझो करो। चाहो तारो चाहो मारो माँ , मै तो तुम्हारी ही शरण में पड़ा हु। तुम्हे छोड़कर कहाँ जाऊ माँ , किसकी शरण लूं ? मुझ जैसे अधमो को और कहाँ ठिकाना है माँ। आश्रयहीन को आश्रय देनेवाला तुमसे बढ़कर कहाँ पाउँगा माँ। तुम्हे बताओ माँ। अब कहिये जय माता दी। जय माँ दुर्गे


"कैलाश में तुम्हारा घर है , जो सारी समृद्धियों की खान है तथा जहाँ की शोभा को स्वर्गादि लोक भी नहीं पा सकते, ब्र्ह्मा और इंद्र आदि देवगन , जिनसे बढ़कर इस संसार में कोई नहीं है। बंदीजनों की भाँती तुम्हारी विरदावली का बखान करते रहते है माँ , सारी त्रिलोकी तुम्हारा कुटुंब है माँ , तुम्हारी दृष्टि में कोई पराया है ही नहीं माँ। आठो सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारे दरवाजे पर खड़ी रहती है और तुम्हारी आज्ञा की प्रतिज्ञा करती रहती है। सवयं देवाधिदेवमहादेव, जो सारे संसार के स्वामी है और साक्षात परब्र्हमसवरूप है तुम्हारे प्राणपति है और नगाधिराज हिमालय तुम्हारे पिता है , तुम्हारी महिमा कि भला कौन समता कर सकता है माँ। अब कहिये जय माता दी। जय जय माँ (संजय मेहता)








गुरुवार, 16 जनवरी 2014

भगवान अपने प्रिया भक्तो का ध्यान करते है : Bhagwan apne priy bhagto ka dhyaan karte hai : Sanjay Mehta Ludhiana









तुम ठाकुर जी का समरण करोगे तो वे भी तुम्हे नहीं भूलेंगे . एक बार नारदजी वैकुण्ठ लोक में आये। लक्ष्मी जी वहाँ थी , किन्तु भगवान् नजर ना आये , इधर -उधर ढूंढने पर उन्होंने देखा कि भगवान ध्यान लगाये हुए बैठे है। नारद जी ने उनसे पूछा - किसका ध्यान कर रहे है आप ? भगवान ने कहा - मै अपने भक्तो का ध्यान कर रहा हु

भगवान अपने प्रिया भक्तो का ध्यान करते है , नारद जी ने पूछा कि ये वैष्णव क्या आप से भी श्रेष्ठ है , जो आप उनका ध्यान कर रहे है ?

भगवान ने कहा - हाँ , वे मुझसे भी श्रेष्ठ है

तब नारद जी ने कहा कि सिद्ध करके दिखाइये अपनी बात

भगवान ने पूछा - जगत में सबसे बड़ा कौन है ?

नारद जी ने कहा - पृथ्वी।

प्रभु ने कहा - पृथ्वी तो शेषनाग के सिर पर आधार रखती है , फिर वह कैसे श्रेष्ठ मानी जाए। नारद जी ने कहा - तो शेषनाग बड़े है।

भगवान - वह बड़ा कैसे हो गया ? वह तो शंकरजी के हाथ का कंगन है अत: शेष से शिवजी महान है , उनसे बड़ा रावण है , क्युकि उसने कैलास पर्वत उठा लिया था। रावण भी कैसे बड़ा कहा जाए , क्युकि बालि उसे अपनी बगल में दबा के संध्या करता था। बालि कैसे बड़ा माना जाएगा क्युकि उसको रामजी ने मारा था। नारदजी ने कहा - तब तो आप ही श्रेष्ठ है

भगवान् - नहीं मै भी श्रेष्ठ नहीं हूँ। मेरी अपेक्षा मेरे भक्तजन श्रेष्ठ है। क्युकि सारा विश्व मेरे ह्रदय में समाया हुआ है। किन्तु मै अपने भक्तो के ह्रदय में समाया हुआ हूँ। मुझे अपने ह्रदय में रखकर ये भक्तजन सारा व्यवहार निभाते है , अत: ये ज्ञानी भक्त ही मुझसे और सभी से श्रेष्ठ है।

भगवान् के भगत भगवान् से भी आगे है , बढ़कर है
'राम से अधिक रामकर दासा।'

मेरे निष्काम भक्त किसी भी प्रकार की मुक्ति कि इच्छा नहीं करते है। बिना मेरी सेवा वे कोई और इच्छा नहीं रखते है
मेरे निष्काम भक्त मेरी सेवा को छोड़कर सालोक्य , सार्ष्टि सामीप्य , सारूप्य और सायुज्य मुक्ति को भी स्वीकार नहीं करेंगे। नरसिंह मेहता ने गाया है

हरिना जन तो मुक्ति ना मांगे , मांगे जन्म-जन्म अवतार रे
नित सेवा , नित कीरतन , अोच्छव , निरखवा नंदकुमार रे
धन्य वृन्दावन , धन्य ए लीला , धन्य ए व्रजना वासी रे
अष्ठ महासिद्धि आंगणिये ऊभी, मुक्ति छे एमनी दासी रे
भूतल भक्ति पदार्थ मोंटू , ब्र्ह्मलोकमां नाही रे

अर्थात हरिजन मुक्ति नहीं , जन्म-जन्म में अवतार चाहते है कि जिससे प्रभु कि नित्य सेवा, कीर्तन , उत्सव करके नंदकुमार का दर्शन किया जा सके

वृन्दावन धन्य है , लीला धन्य है और व्रजवासी भी धन्य है कि जिनके आंगन में अष्ट महासिद्धि खड़ी है और मुक्ति जिनकी दासी है ब्र्ह्मलोक में भी जो प्राप्त नहीं हो सकता , ऐसे श्रेष्ठ पदार्थ भक्ति केवल पृथ्वी पर ही प्राप्य है। मेरे भक्तजन मेरे प्रेमरूपी अप्रकृत सवरूप को प्राप्त करते है , जब कि देह - गेह में आसक्त पुरष अधोगति पाते है
अब कहिये जय माता दी। जय जय माँ जय श्री कृष्णा


यदि तुम अपने माता की सेवा करोगे तो तुम्हारी वृद्धावस्था में तुम्हारी संताने तुम्हारी सेवा करेंगी। माता- पिता , गुरु , अतिथि और सूर्य - ये चार इस संसार में प्रत्यक्ष देव है , उनकी सेवा करो। जय माता दी जी











रविवार, 12 जनवरी 2014

मेरा और तेरा' का खेल: Sanjay Mehta Ludhiana










जीव जैसा कपटी और ईश्वर जैसा भोला और कोई नहीं है। दूसरो के लिए कुछ करना पड़े तो तकलीफ - सी होती है , परन्तु अपनों के लिए करना हो तो आनंद होता है। रात को ग्यारह बजे कोई साधू आएगा तो उनसे पूछा जायेगा कि महाराज, चाय लाऊं या दूध। मन कहेगा कि इतनी रात गए यह बला कहाँ से आ पड़ी। विवेक तो करना ही पड़ता है। महाराज सरल होंगे तो कहेंगे कि सुबह से भूखा हु, पूरी बना डालो। किसी का पत्र लेकर आये है अत: बनाना पड़ेगा ही , किन्तु खाना बनाने के साथ - साथ बरतनो की ठोकपीट भी सुनाई देगी , पर यदि नैहर से अपना भाई आएगा और कहेगा कि मैंने नाश्ता कर लिया , अत: भूख नहीं है , फिर भी वह कहेगी कि नहीं , तू भूखा है , मै अभी हलवा - पूरी बना देती हु। कोई देरी नहीं होगी। अपने भाइयों को तो हलवा पूरी खिलायेगी और महाराज को चाय से ही टाल देगी। यह सब मन के खेल है , मन बड़ा कपटी है , 'मेरा और तेरा' का खेल इस मन ने ही रचा है। सचमुच मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है मन जो विषयों में आसक्त हो जाए तो वह बंधन का कारण बनता है और वही मन यदि परमात्मा में आसक्त हो जाए तो मोक्ष का कारण बनता है। अब कहिये जय माता दी जय श्री राम जय जय माँ











बुधवार, 8 जनवरी 2014

नहीं ऐसा नहीं है : Nahi Esa Nahi Hai








नहीं ऐसा नहीं है




बालकृष्ण लाला पालने में विराजमान है , जैसे ही पूतना भीतर आयी लाला ने आँखे बंद कर ली। इस के बारे में अलग अलग संतो की राय

एक महापुरष ने वर्णन किया कि लाल ने आँखे बंद कि , इसका कारण येही है कि श्री कृष्ण कि आँखों में ज्ञान और वैराग्य है , भगवन जब किसी कि और एक बार भी प्रेम से देखते है , उसको संसार तुच्छ प्रतीत होता है , उसकी बुद्धि में ज्ञान का स्फुरण होता है। भगवान् यह सोचते है के मै इसे दृष्टि दूंगा तो वह समझ जायेगी कि यह बालक नहीं , पर काल है , यह बालक काल का भी काल है , यह तो ईश्वर है , इसे मेरे सवरूप का ज्ञान हो जायेगा फिर जो यह करने आयी है वह नहीं करेगी और मेरे पैर पड़ेगी , मेरी पूजा करेगी आरती करेगी इस लिए लाला ने आँखे बंद की ।

एक महात्मा कहते है -- ना ना ऐसा नहीं -- भगवान की दृष्टि पाने से क्या कही अचानक ज्ञान हो जाता है ? दर्योधन को प्रभु ने समझाया , फिर भी उसे कहाँ ज्ञान हुआ ? लाला ने आखे बंद की इस का कारण कुछ और है प्रभु ने सोचा कि मैंने शास्त्र में नियम बनाया है कि 'स्त्री अबला है और मारना नहीं चाहिए ' इस नियम का भंग मेरे ही द्वारा हो जायेगा। इस प्रकार लाला को क्षोभ हुआ और उन्होंने आँखे बंद की

एक महात्मा कहते है - नहीं नहीं लाला ने आखे यह सोच कर बंद की के अब मै पूतना के प्राण चूसने वाला हु , तब पूतना बहुत तडफेगी , मै उसे मुक्ति तो देने ही वाला हु , पर मुक्ति से पहले वह सर पटकेगी, बहुत रोयेगी , मुझ से देखा नहीं जायेगा लाला को दया आ गयी , इसलिए उसकी बंद हो गयी।

एक महत्मा यह कहते है -- ना ना ऐसा नहीं है , ईश्वर है और वह जाग रहा है , जिसको ज्ञान है , वह पाप नहीं कर सकता , ईश्वर नहीं है और है तो सोये हुए है , ऐसा जो मानते है , वही जीव पाप कर सकता है , पूतना पाप करने के लिए आयी है , लाला ने सोचा कि मै आँखे खुली रखूँगा तो वह पाप नहीं कर सकेगी , मै सोया हुआ , ऐसा समझेगी तो ही पाप करेगी , मै निंद्रा का थोडा - सा नाटक करता हु, इससे लाला ने आखे बंद कि है

एक माहत्मा कहते है - ना - ना ऐसा भी नहीं है। पूतना वासना है , वासना आँखों से भीतर आती है , भीतर आने के बाद ज्ञान को धक्का देती है इससे जगत को प्रभु ने बोध दिया ही कि मन को पवत्र रखना है तो आँखों को पवित्र रखना। आँखे बिगड़ती है तो मन बिगड़ता है , आखो से ही पूतना - वासना भीतर आती है , उसे भीतर ना आने दे ,

एक माहत्मा ने सोचा - पूतना आज मेरे सम्मुख आती है तो पूतना ने इस जन्म में तो कोई पुण्य किया नहीं , लाला ने ध्यान किया तो देखा - यह तो बलिराजा कि पुत्री है , बलिराजा के यज्ञ में में भगवान् वामन जी का रूप धारण करके भिक्षा मांगने गए थे . तब बहुत सुंदर दिख रहे थे। तब बलिराजा कि कन्या को जब वामनजी के दर्शन हुए तब उसके मन में ऐसा विचार आया कि बालक मेरी गोद में आ जाए तो कितना अच्छा हो मै इसे खिलाओ तो दूध पिलाऊ बलिराजा कि पुत्री के मन में वातसल्य - भाव जागा पर जब वामन जी ने सब कुछ हर लिया तो वह सोचने लगी कि मेरे पिता को , कपट करके छला, इसे मारना चाहिए , और भगवन ने उसके दोनों सकल्पो को सोचा इस लिए भगवान् ने आँखे बंद की

एक महात्मा यह लिखते है - नहीं नहीं ऐसा नहीं है - खुली आँखों से क्या लाला नहीं देख सकते , अरे, उसे तो खुली आँखों से भी सब दीख पड़ता है , ज्ञान शक्ति प्रकट करने के लिए जीव को आँखे बंद करनी पड़ती है , ईश्वर कि ज्ञान शक्ति तो प्रकट ही है। लाला ने आखे बंद की है इसका कारण भिन्न है , पूतना के आने के बाद प्रभु सोचने लगे कि मै इसे किस तरह सद्गति दूँ? इसे सवर्ग ले जाउ , बैकुंठ में ले जाउ या गोलोक धाम में ले जाउ ? यह सोचते हुए लाल ने आखे बंद की

लाला ने आँखे बंद की इस कारण स्प्ष्ट करते हुए संजय मेहता कहते है कि वेदो में वर्णन है कि श्री कृष्ण कि दायी आँख में सूर्य है , बायीं आँख में चन्द्र है सूर्य - चन्द्र वैष्णव है उन्हें कन्हैया बहुत प्रिय है , पूतना जब विष देने आयी तब सूर्य - चन्द्र को यह बात पसंद ना आयी , वे सोचते है कि हमारा कन्हैया तो बहुत कोमल है , यह कैसी दुष्ट है कि हमारे कन्हैया के लिए माखन - मिश्री तो ना लायी , पर विष ले आयी , आपके किसी प्रिय को कोई विष देने आये तो क्या आप देख सकेंगे ? सूर्य - चन्द्र से यह सहन ना हुआ - सूर्य - चन्द्र उसे देखे ना सके , इससे आँखे बंद हो गयी।

अब कहिये जय माता दी








चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए : Sanjay Mehta Ludhiana










महाभारत में एक कथा है। भीष्म जी ने प्रतिज्ञा की कि कल मै अर्जुन का वध करूँगा। भीष्माचार्य की प्रतिज्ञा व्यर्थ नहीं हो सकती . पाण्डवसेना में हाहाकार मच गया . अर्जुन तो नित्य नियमानुसार भगवत-चिंतन करते हुए सो गए। श्री कृष्ण को चिंता होने लगी कि कल मेरे अर्जुन का क्या होगा ? वे अर्जुन से मिलने आये। अर्जुन तो सोये हुए थे। श्री कृष्ण ने उन्हें जगाकर पूछा कि तुम सो कैसे रहे हो ? तुम्हे आज नींद कैसे आ रही है ? तो अर्जुन ने कहा कि मेरे लिए जब आप सवयं जागरण कर रहे है तो मुझे क्या चिंता हो सकती है ? मैंने अपना कर्त्तव्य निभा लिया , अब आपको अपना कार्य निभाना है। मनुष्य का कर्त्तव्य है अनन्य शरणागति मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। जय माता दी जी। । जय श्री कृष्णा









शनिवार, 4 जनवरी 2014

जमनादास भक्त का एक दृष्टांत: Sanjay Mehta Ludhiana








'२५२ वैष्णवन की वार्ता' में जमनादास भक्त का एक दृष्टांत है। एक बार वे ठाकुरजी के लिए फूल लेने के लिए बाजार में निकले। माली की दूकान पर एक अच्छा सा कमल देखा . उन्होंने सोचा कि आज अपने ठाकुरजी के लिए यही सुंदर कमल ले जाऊं। इसी समय वहाँ एक यवनराज आया जो एक स्त्री के लिए फूल लेना चाहता था। जमनादास भक्त ने उस कमल फूल की कीमत पूछी तो माली ने कहा कि पांच रूपये का है इसकी कीमत , तो यवनराज ने बीच में ही कह दिया कि मै इस फूल के लिए दस रूपये दूंगा , तू यह फूल मुझे ही दे। तब उस जमनादास भक्त ने कहा कि मै पच्चीस रूपये देने को तैयार हु , फूल मुझे ही देना। इस प्रकार फूल लेने के लिए दोनों के बीच होड़-सी लग गई।

यवनराज ने दस हजार की बोली लगाई तो भक्त जमनादास ने कहा कि एक लाख। स्त्री के लिए यवनराज को वैसा कोई सच्चा प्रेम नहीं था , केवल मोह था। उसने सोचा की मेरे पास लाख रूपये होंगे तो कोई दूसरी स्त्री भी मिल ही जायेगी पर उधर जमनादास भक्त के लिए तो ठाकुर जी सर्वस्व थे . उनका प्रभु - प्रेम सच्चा था , शुद्ध था। उन्होंने अपनी सारी सम्पति बेच दी और लाख रूपये में वह कमल फूल खरीद कर श्री नाथ जी की सेवा में अर्पित कर दिया। फूल अर्पित करते ही श्री नाथ जी के सिर से मुकुट नीचे गिर गया। इस प्रकार भगवान् ने बताया कि भक्त के इस फूल का वजन मेरे लिए अत्यधिक है --- अब कहिये जय माता दी जी