सोमवार, 30 दिसंबर 2013

माँ ओ माँ!!: Maa o Maa : Sanjay Mehta Ludhiana







माँ ओ माँ!!

जगज्जन्नी महामाये ! सृष्टि और प्रलय, जीवन और मृत्यु सूत्र को अपने हाथो में लेकर जब तुम एक बार अटटहास करती हो तो उसमे कोटि - कोटि बृह्मांड बनते और बन-बन कर मिट जाते है। माँ , सृष्टि तुम्हारा लास्य और प्रलय तांडव है। तुम करालकाल हो, महामृत्यु हो। सृष्टि के पूर्व केवल तुम्ही थी और प्रलय के अनंतर तुम्ही रह जाती हो। जय माता दी जी



काली , दुर्गा और शक्ति तुम्हारा ही नाम है , रक्तीबीजो से जब संसार का पुण्य त्राहि - त्राहि करने लगता है , जब धर्म को कही शरण नहीं मिलती तब देवि! तुम खप्पर और करवाल लेकर अवतार लेती हो। ओ माँ , तुम्हारा यह रूप कितना भीषण, कितना रौद्र है। माँ! तुम्हारा यह विकट रणतांडव! चण्डिके! दुर्गे! माँ कालिके! तुम्हारा यह रूप देखकर तो ह्रदय भय से थर-थर कांप रहा है ! यह भीषण रौद्र रूप! घने-घने काले केश खुले हुए है। काला डरावना भैरव वेश! मस्तकपर नेत्र से क्रोधाग्नि धधक रही है। उससे प्रखर दाह का ज्वाला धायँ- धायँ कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त संसार इस क्रोधाग्नि में भस्म हुआ जा रहा है। दुर्गे , तुम्हारे इस तीसरे नेत्र की ज्वाला !! तुम्हारी और भी दोनों लाल लाल आँखों से चिंगारियां बरस रही है। उससे कराल किरणे फूटी निकलती है। माँ भैरवि! तुम्हारे मस्तक पर सिन्दूर का जो बड़ा टीका लगा है वह भी कितना भयावना है






और गले की मुण्डमाला! उफ़ ! इतना भैरव, इतना प्रकुप्त ! माँ! तुम्हारा चंद्रहार नरमुण्डमाल का क्यों ? यह दुहरी-तिहरी मुण्डमाला। कितना भायनक , कितना बीभत्स! उन नरमुण्डों के मस्तक पर तुमने श्मशान का भस्म लगाकर इंगुर की बेंदी लगा दी है ! माँ! यह कैसा विकरण प्रलयंकर रूप! उफ़! तुम्हारी लाल-लाल जीभ छाती तक लटक रही है और उससे खून टप-टप चू रहा है। दाहिने हाथ में करवाल है और बायें हाथ में खप्पर! करवाल भी खून से लथपथ है। और तुम्हारा यह खप्पर ! रक्त से भरा खप्पर! ना, ना ; यह खप्पर कभी भी भरेगा? जब तुम अटटहास करके शत्रु पर झपटती हो उस समय माँ। इस खप्पर के रक्त में एक आंदोलन उठ खड़ा होता है। उफ़ ! तुम्हारी प्यासी तलवार! तुम्हारा लोहू-भरा खप्पर! तलवाल की प्यास ना बुझेगी। ना यह खप्पर ही कभी भर पायेगा। सिंहवाहिनी माँ। जब तुम सिंह के समान असुरो पर झपटती हो उस समय तुम्हारे मुक्त कुंतल फहरा उठते है - आँखों से आग बरसने लगती है। लपलपाती हुई जीभ - असुरो के रक्त पीने कि अभ्यस्त जीभ ! अनादि काल से तुम असुरो के महानाश में सलंग्न हो , पर तुम्हारा खप्पर ना भरा, करवाल की प्यास ना बुझी , रक्त्त पीने से तुम्हारा जी ना भरा ! पियो, पियो भगवती भैरवि! जगज्जन्नी दुर्गे! असुरसंहारिणी कालिके! पियो, पियो रक्तबीजों का लोहू! उफ़! यह कितना रौद्र, माँ ! जब तुम अपने अधरो को खप्पर से सटाकर रक्त पीने लगती हो - उस समय , उस समय जब एक क्षण के लिए अपने उन्मद नेत्रो को ऊपर उठाकर नेक मुस्का देती हो!! फिर खप्पर में मुंह सटाकर जब उसमे अपनी कराल काल- सवरूपिणिस्पस्पाति हुई जिह्वा डुबोती हो!! माँ चामुण्डे ! पियो, पियो , असुरो के रक्त को पियो



माँ अपनी ज्वाला आप ही सँभालो। यह ज्योति मुझसे सही नहीं जाती, दयामयी जननी! अपना रौद्र रूप समेट लो. माँ भैरवि! मुझे अपने सौम्य रूप की भी झांकी लेने दो माँ ! दयामयी माँ

माँ ! तुम्हारा यह सौम्य, शांत, पावन, कोमल करुणप्रेमिल रूप ! महामाये ! महादुर्गे! माँ शक्ति ! तुम्हारा यह स्नेहिल रूप कितना पावन, कितना सौम्य है माँ !

माँ सरस्वती ! माँ ओ माँ तुम्हारा यह मंगलरूप ! तुम्हारा यह कल्याणरूप ! तुम्हारी यह स्निग्ध शीतल कांति ! आह! ह्रदय श्रद्धा और प्रेम से तुम्हारे चरणो में नत है माँ, माँ संजय मेहता का प्रणाम स्वीकार करो माँ

माँ तुम्हारा यह हृदयहारी रूप ! श्वेत - पद्म की सुविकसित पंखुड़ियों पर तुम सुखासीन हो , तुम्हारा वाहन हंस जल के केलि - करोल कर रहा है माँ। दिव्या वीणा के स्वर्गीय तारो पर तुम्हारी कोमल - कोमल अँगुलियाँ नाच रही है माँ। एक हाथ में वेद है , और दूसरे हाथ की अभय - मुद्रा! धप -धपाती हुए स्निग्ध -कोमल धवल कांति ! कितनी भव्य, कितनी चित्ताकर्षक पावन मंगल - मूर्ति है , ह्रदय पावनता का महासमुन्द्र उमड़ रहा है माँ , प्राणो में तुम्हारी स्निग्ध - कोमल मधुर कांति प्रेम भर रही है , तुम विद्या , बुद्धि , विवेक और ज्ञानकी देवी हो माँ , कैसा मंगलमय है तुम्हारा रूप माँ अब कहिये जय माता दी जी



माँ! महालक्ष्मी भी तो तुम्ही हो। सकल ऋद्धि-सिद्धि कि अधिष्ठात्री , समस्त वैभव की जननी, समस्त सुख - सुहाग- ऐश्वर्य की दात्री माँ ! रक्त - कमल पर तुम्हारे कोमल चरण समासीन है। कैसा सुंदर रूप है माँ , संजय का प्रणाम स्वीकार करो माँ। लाल रेशमी साडी पहिने हुए। एक हाथ में कमल है , दूसरे में शंख , और अभयदान दे रही हो तीसरे हाथ से , तुम्हारी आँखों से कैसी स्निग्ध - ध्युति छलक रही है - और सरोवर में खिले हुए कमलो के बीच एक श्वेत गज अपनी सूंड में कमल की माला लेकर तुम्हारे चरणो में समर्पित करने के लिए उत्सुक है माँ। ओ माँ। इस रूप में समस्त विश्व , कोटि - कोटि बृह्मांड तुम्हारे चरणो में अपना ह्रदय-कमल समर्पित कर रहे है , माँ नारायणी , तुम्हारी जय हो माँ , जय हो माँ अब कहिये जय माता दी जी . जय जय माँ



देवि! जगज्जन्नी महामाये! तुम्हारा सरस्वती और लक्ष्मी रूप कितना सौम्य और कितना स्निग्ध है। जी चाहता है , अपने को चढ़ा दू इस मधुर मनोहर देवी के पदपद्मों पर। माँ ! तेरी झांकी बनी रहे - इससे अधिक इस आतुर ह्रदय के लिए क्या चाहिए माँ , संजय का प्रणाम स्वीकार करो माँ
ऐ जगज्जन्नी महासती पार्वती तुम्हारा ही नाम है तुम्ही ने त्रिभुवन मोहन शंकर ने वरा था। माता पार्वती ! तुम्हारे पावन चरणो में मेरा कोटि कोटि प्रणाम है। देवता के साधन में तुम्हारी कठोर तपश्चर्या ! 'बरौं संभु न त रहौं कुँवारी" की तुम्हारी भीषण प्रतिज्ञा और उस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए जीवन को तपस्या की आग में झोंककर, निरावरण होकर सर्वशून्य होकर अपने प्राणनाथ के चरणो में सर्वात्मसमर्पण !

प्रेम कैसी विकार परीक्षा थी , सप्तऋषि आये और तुम्हे विचलित करने की चेष्टा करने लगे। उस समय तुमने जिस अविचल श्रद्धा, अगाध प्रेम और अटूट भक्ति का परिचय दिया था। उसके जोड़ का संसार में नहीं मिला . आज भी स्त्रियां मांग में सेंदुर देते समय सतीत्व के आदर्शरूप में माता गौरा - पार्वती का ध्यान करके उनकी मान में सिन्दूर सभक्ति डाल देती है। आज भी संसार में जहाँ सतीत्व की बात आती है वहाँ , माँ अन्नपूर्णे ! परमकल्याणी देवि! तुम्हारा ही नाम गर्व के साथ लिया जाता है। सतीत्व के आदर्श रूप में तुम्हारा गुणगान समस्त विश्व कर रहा है और इसी प्रेम ने तुम्हे शिव के चरणो में पहुंचाया माँ - अब कहिये जय माता दी


माँ! तुम्हारा रूप कैसा मंगलरूपहै , कैसा अपूर्व तुम्हारा परिवार और कैसा अपूर्व है उनके वाहन ! मेरे सम्मुख जो मूर्ति है माँ वह तो बहुत ही आह्लादकारी और वात्सल्यपूर्ण है माँ। तुम मगलमूर्ति शिशु गणेश जी को गोद में लेकर सोने के कटोरे में रखी हुई मिठाई खिला रही हो और गणेश जी कभी-कभी अपनी सूंड सवयं कटोरे में डूबा देते है। भगवान् शंकर यह देखकर मुस्करा रहे है माँ ! तुम्हारे कोमल चरण - कमलो में सदा सभक्ति कोटिश: प्रणिपात है माँ मेरा। जय माता दी जी



सीता और राधे भी तुम्ही हो अम्बे ! पातिव्रत्य के आदर्शरूप में सीता और प्रेम के आदर्शरूप में राधा तुम्हे हो। सेवा, समर्पण, त्याग तथा आत्माहुति में सीता और राधा संसार में सदा के लिए अमर है
जय माता दी जी









रविवार, 22 दिसंबर 2013

सबसे ऊँची प्रेम सगाई।







सबसे ऊँची प्रेम सगाई।

दुर्योधन को मेवा त्यागे साग विदुर घर पाई
जूठे फल शबरी के खाए बहुविधि स्वाद बताई
प्रेम के बस नृप सेवा किन्ही आप बने हरि नाई
राजसुयज्ञ युधिष्टर कीन्हो तामे जूठ उठाई
प्रेम के बस अर्जुन-रथ हॉकयों भूल गए ठकुराई
ऐसी प्रीत बढ़ी वृन्दावन गोपिन नाच नचाई
सूर कूर इस लायक नाही कहँ लगि करौं बड़ाई
जय श्री कृष्णा . जय माता दी जी









महालक्ष्मी कोल्हापुर : Mahalakshmi Kolhapur: Sanjay Mehta Ludhiana









एक बार भृगुऋषि देवो कि परीक्षा करने गए। भगवान् नारायण शेष - शय्या में सोये हुए थे। लक्ष्मी जी सेवा कर रही थी। भृगुऋषि को क्रोध आ गया। सोचने लगे कि ये तो सारा दिन सोते ही रहते है ? उन्होंने नारायण की छाती पर लात लगायी। नारायण जागे . प्रभु ने भृगुऋषि से कहा - आपके कोमल चरणो को आघात लगा होगा। लाइए , आपकी सेवा करू। प्रभु ने भृगुलांछ्न - चिन्ह छाती में धारण कर लिया। लक्ष्मी जी ने कहा - इस ब्राह्मण को सजा दीजिये . पर प्रभु ने तो भृगुऋषि की सेवा करनी शुरू कर दी। लक्ष्मी जी नाराज हो गयी। लक्ष्मी जी ने प्रभु से कहा - विद्या बढ़ती है तो साथ में अभिमान भी बढ़ता है तो विध्या - तप का विनाश हो जाता है। इसलिए इन्हे सजा दीजिये , पर प्रभु ने इंकार किया। इससे लक्ष्मी जी बैकुंठ छोड़कर कोल्हापुर जाकर रही। वहाँ वे अकेली है , नारायण साथ में नहीं है। कोल्हापुर में उनका सवरूप उग्र है , आँखे बहुत बड़ी है , तब से उन्होंने निश्चय किया कि ब्राह्मण बहुत अभिमानी होते है। अब मुझे ब्राह्मणो के घर नहीं जाना। तब से ब्राह्मण के घर लक्ष्मी जी नहीं जाती है , पर भगवान् ब्राह्मण को मान देते है। नारायण तो छाती पर लात मारने वाले ब्राह्मण से भी प्रेम करते है। अब कहिये जय माता दी। जय श्री कृष्णा









गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

अम्बिकास्थान : Ambikasthaan : Sanjay Mehta Ludhiana











अम्बिकास्थान


श्री दुर्गासप्तशती में वर्णित राजा सुरथ और समाधि वैश्य का नाम प्राय: सब लोग जानते ही है। . राजा अपने शत्रुओं से हारकर और मंत्री - पुत्रादि द्वारा राज सिंहासन से उतार दिए जाने पर , तथा समाधि अपने पुत्रो द्वारा घर से निकाले जाने पर एक ही स्थान में पहँुचे और दोनों आदमी साथ ही मेधस मुनि के आश्रम में गये। वहाँ मुनि को उन लोगो ने अपनी कष्टकहानी सुनायी और उपदेश के लिए प्रार्थना की। मुनि ने उन लोगो को जीवन का वास्तविक रूप और सच्चा ज्ञान बतलाया और उन्हें महामाया आद्यशक्ति की शरण में जाने की सलाह दी , बस वहाँ से वे दोनों किसी नदी के तट पर एक गहन वन में चले आये और जगन्माता की एक मिटटी की मूर्ति बनाकर उनकी आराधना और तपस्या करने लगे, जहाँ अंत में भगवती अम्बिका ने साक्षात प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए और उनकी मनोकामना पूरी की
यह दिघवारा (सारन) स्टेशन से दो ढाई मील पश्चिम गंगातट पर है , जहा आज भी अम्बिकाजी का भव्य मंदिर वर्त्तमान है यही महिमयी देवी कहलाती है , कोई कोई इन देवी जी का स्थान खरीद में बतलाते है। अब कहिये जय माता दी जी







श्री हरसिद्धि देवी : Shree Harsiddhi Devi : Sanjay Mehta Ludhiana








श्री हरसिद्धि देवी
यहाँ सती की केहुनी गिरी थी इसी से यहाँ देवी की कोई प्रतिमा नहीं ,



प्राचीन काल में चण्ड, प्रचण्ड नामक दो राक्षस थे , जिन्होंने अपने बल - पराक्रम से सारे संसार को कंपा दिया था। एक बार ये दोनों कैलास पर गए . जब ये दोनों अंदर जाने लगे तो द्वार पर नंदीगण ने इन्हे रोका, जिससे क्रोधित होकर इन्होने नंदीगण को घायल कर डाला। जब भगवान् शंकर को यह बात मालुम हुई तो उन्होंने चण्डी का समरण किया . देवी ने तुरंत प्रकट होकर शिवजी की आज्ञा के अनुसार उन राक्षस का वध कर दिया। शिवजी ने देवी की विजय पर प्रसन्न होकर कहा कि अब से संसार में तुम्हारा नाम 'हरसिद्धि' प्रसिद्ध होगा और लोग इसी नाम से तुम्हारी पूजा करेंगे। तब से माता हरसिद्धि उज्जैन के महाकालवन में ही विराजती है

कहते है सम्राट विक्रमादित्य कि आराध्या देवी यह श्री हरसिद्धि ही थी। वह इन्ही की कृपा से निर्विघ्न शासनकार्य चलाया करते थे। महाराज माताजी के इतने बड़े भक्त थे कि वह हर बारहवे साल सवयं अपने हाथो अपना सिर उनके चरणो पर चढ़ाया करते थे और माता की कृपा से उनका सिर फिर पैदा हो जाता था। इस तरह राजा ने ग्यारह बार पूजा की और बार -२ जीवित हो गए। बारहवी बार जब उन्हों ने पूजा कि तो सिर वापस नहीं हुआ और इस तरह उनका जीवन समाप्त हो गया। आज भी मंदिर के एक कोने में ग्यारह सिन्दूर लगे हुए रुण्ड रखे हुए है। लोगो का कहना है कि ये विक्रम के कटे हुए मुण्ड है। किन्तु इस विषय में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता। अब कहिये जय माता दी जी

तू ही
दोहा - चिंता बिघ्नबिनासिनी कमलासनी सक्त
बीसहथी हँसबाहिनी माता देहु सुमत्त
भुजंगप्रयात
नमो आद अनाद तुंही भवानी। तुंही योगमाया तुंही बाकबानी
तुंही धरन आकास बिभो पसारे। तुंही मोहमाया बिसे सूल धारे
तुंही चार बेद खंट भाप चिन्ही। तुंही ज्ञान बिज्ञान में सर्ब भिन्हि
तुंही बेद बिद्या चहुदे प्रकासी। कलामंड चौबीसकी रुपरासी
तुंही बिसवकर्ता तुंही बिसवहर्ता। तुंही स्थावर जंगममें प्रवरता
दुर्गा देबि बन्दे सदा देव रायं। जपे आप जालंधरी तो सहाये
दोहा - करै बिनती बंदिजन सन्मुख रहे सुजान
प्रगट अंबिका मुख कहै मांग चंद बरदान







सोमवार, 16 दिसंबर 2013

श्री बाला बहुचराजी : Shree Bala Bahucharji Maa : Sanjay Mehta Ludhiana








श्री बाला बहुचराजी

चुवाल में गायकवाड़ सरकार की सीमा में श्री बहुचराजी विराजमान है। अहमदाबाद से मेहसाना होते हुए श्री बहुचराजी स्टेशन तक जाना होता है। श्री माता जी के स्थान तक जाते समय रास्ते में एक बहुत बड़ा तालाब आता है। उसके आगे श्री माताजी के कोटका दरवाजा है , उसके बाद मानसरोवर आता है , जिसमे स्नान करके यात्री श्री माताजी का दर्शन - पूजन करते है।

श्री कृष्ण के जन्मसमय यशोदाजी कि मायारूपी जो पुत्री देवकी के पास आयी थी उसी बाला के नाम पर श्री बालाजी का नाम प्रसिद्ध है , बहुतेरे राक्षसो को भक्षण करके विचरण करने के कारण बहुचरी नाम पड़ा है। श्री बाला जी के पीठस्थान के चमत्कार के संबंध में बहुत से कथाये प्रचलित है (माँ संजय का प्रणाम स्वीकार करो माँ )

१. अल्लाउद्दीन द्वितीय ने पाटणको जीतकर गुजरात में हिंदुओं के मंदिरो को तोडना शुरू किया . उसने सिद्धपुर के प्रसिद्ध रुद्रमाल को तोड़ डाला। बहुचराजी की ख्याति सुनकर वह उनको तोड़ने के लिए अपनी सेनाके साथ आया। माताजी का वाहन कुक्कुट (मुर्गा) माना जाता है। माता जी के बहुतेरे मुर्गे वहाँ फिर रहे थे। मुसलमानो ने उन्हें पकड़कर मारकर खा लिया। केवल एक मुर्गा वहाँ उनकी भूल से बच गया। रात होने पर जब सब मुसलमान सो गये, तब वह बचा हुआ मुर्गा 'कुकडूँ-कू -कुकडूँ-कू बहुचरी की ' कहकर बाँग देने लगा। इसपर जितने मुर्गे मारे गये थे सब मुसलमान सैनिको के पेटों में 'कुकडूँ-कू -कुकडूँ-कू' बोलने लगे और उनके पेट फाड़-फाड़कर बाहर निकल आये। इस चमत्कार को देखर बाकी मुसलमान - सेनाभाग खड़ी हुई। अब कहिये जय माता दी जी . दूसरी कथा कल तब तक के लिए जय माता दी जी


एक दूसरी चमत्कार की कथा इस प्रकार है। एक सोलंकी वंश के राजा को कोई संतान ना थी। रानी ने एक लड़की के जन्म लेने पर राजवंश के चालु रखने के लिए घोषित कर दिया कि कुंवर उतपन्न हुआ है। और उसका नाम तेजमल रख दिया गया। उसके बड़े होने पर पाटण के चावड़ा वंश के राजा कि लड़की से उसकी शादी हुई . जब लड़की ससुराल आयी तो उसे पता चला कि उसका पति पुरष नहीं , बल्कि स्त्री है। पीछे मैके जाने पर उसने सारी बाते वहाँ कह सुनायी। वहाँ वालों ने कुवर कि परीक्षा करने के विचार उसे उसे बुलाया। नकली कुंवर अपने श्वशुर के यहाँ जाने से पहले तो बहुतेरे बहाने करता रहा . पर अंत में लाचार होकर एक घोड़ी पर सवार होकर चला। वहाँ उसकी परीक्षा के लिए खुले स्थान में ठहराने का प्रबंध किया गया था। कुवरि घबड़ाया और अपनी प्रतिष्ठा बचाने के ख्याल से बहना करके वहाँ से अपनी घोड़ी पर सवार हो भाग निकली। पकडे जाने के भय से वह घोड़ी को बड़ी ही तेजी से दौड़ाती ले जा रही थी। उसके पीछे पीछे उसकी एक कुतिया भी दौड़ी चली जा रही थी। चैत्रमास की कड़ी धुप थी। वह बेचारी आफत कि मारी चुवाल के उष्ण परदेश में दौड़ती चली जा रही थी। इतने में एक तालाब रास्ते में दिखलायी दिया। वहाँ उसने घोड़ी को पानी पिलाने के लिए खड़ा किया और सवयंविश्राम करने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ रही। इतने में कुतिया थकी-मांदी दौड़ती हुई आ पहंची और पानी देखकर तालाब में घुस गयी। जब वह पानी से बहार निकली तो कुवरि को यह देखर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि वह कुतिया कुत्ता बन गयी थी। उसने अपनी घोड़ी को भी परीक्षा के लिए पानी में उतारा और जब उसे घोड़े के रूप में बदलते देखा तो उसने सवयं कपडे उतारकर एक डुबकी उस तालाब में लगायी और श्री बहुचरा माता के परताप से तुरंत पुरषरूप में परिणत हो गयी। वही तालाब आजकल मानसरोवर के नाम से प्रसिद्ध है। अब कहिये जय माता दी जी











शनिवार, 14 दिसंबर 2013

पावागढ़(गुजरात) की श्री महकालीजी : Sanjay Mehta Ludhiana








पावागढ़(गुजरात) की श्री महकालीजी


जनश्रुति है की श्री कलिका माता जी के शाप से यह नगर ध्वंस हो गया , श्री कलिका जी के मंदिर के पास आश्विनस पक्ष कि नवरात्रि में बराबर गरबा होता है। इस नगर की तथा राजमहल की स्त्रियां एक साथ इकट्ठी होकर श्री माता जी का स्तवनगान करती है। शारदी चंद्रिका में यह उत्स्व बड़ा ही सुहावना होता हअ सारी दर्शकमंडली श्री माताजी के भाव में उन्मत्त होकर आनंदसुधा का पान करने लगती है। सुनते है, इसी प्रकार के आन्दोत्स्व में एक बार जब गरबा हो रहा था तब स्त्रियो के प्रेम से प्रसन्न हो सवयं माता जी एक दिव्या रमणी का वेश धारणकर आयी और स्त्रियों में शामिल होकर गरबा गाने लगी . उस अवसर पर चम्पानेर का राजा पताई जयसिंह भी आया हुआ था। वह माताजी के गरबा के माधुर्य को सुनकर तथा उनकी दिव्या सौंदर्य छटा को देखकर मोहित हो गया। पीछे जब सब स्त्रियों के चले जाने पऱ तब राजा ने श्री कलिका का हाथ पकड़ लिया . माताजी ने कहा "मै प्रसन्न हु तू वर मांग" राजा उन्हें पटरानी बनाना चाहता था। बस फिर क्या था कालिका ने क्रुद्ध हो शाप दिया - "जा छह महीने के अंदर तेरा सर्वनाश हो जायेगा " इतना कहकर अदृश्य हो गयी। मंदिर में सिंह-गरजन होने लगा , पहाड़ जमीन में धंसने लगा और श्री कलिका की मूर्ति भी पहाड़ी में प्रवेश करने लगी। मंदिर के पिछले हिस्से में एक महात्मा रहते थे , उन्हों ने कालिका से विनती की और देवी के सर पर हाथ रखकर कहा - "माँ अब क्षमा करो " बस, देवी उसी रूप में पहाड़ी के साथ वैसी ही अवस्था में रह गयी। आज भी देवी का सिर ही दिखलायी देता है , पावागढ़ के नष्ट होने पर अहमदाबाद , सूरत और आधुनिक बड़ौदा शहर बसे अस्तु ! (संजय )जय माता दी जी










शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

श्री अखैराम सेठ की डूबती हुई जहाज का अम्बाजी द्वारा बचाया जाना : Sanjay Mehta Ludhiana











कुछ शताब्दियों पहले मन्दसोर के सेठ अखौरी राम जी व्यापारी बिसानगर वैश्य का जहाज रात्रि के समय तूफ़ान आने के कारण समुन्द्र में डूबने लगा। तब सेठजी ने अम्बा जी को याद किया और अपनी सम्पत्ति का आधा हिस्सा जगदम्बा के दरबार में अर्पण करने का संकल्प किया। इतना करते ही भगवती ने त्रिशूल के द्वारा जहाज को उठाकर तुरंत किनारे लगा दिया और उसी रात को पूजारी को यह वृतांत सूचित कर पौशाक बदल देने की आज्ञा दी। पूजारी ने मंदिर खोलकर देखा तो माताजी की पोशाक भींग रही थी और त्रिशूल कुछ टेढ़ा हो रहा था। कपडे निचोड़कर आचमन लेने पर जल खारा लगा। आबू के पास खारा पानी कहाँ से आता ? माता जी के दिए हुए स्व्प्न और प्रत्यक्ष की इस घटना की खबर दांतामहराज को दी गयी। दांतामहराज वहाँ आये। इक्कीस दिनों के बाद सेठ अखैराम वहाँ आ पहुंचे और उन्हों ने सम्पत्ति का आधा भाग माता की सेवा में अर्पण किया। हवन कराकर माताजी को एक हीरा भेंट किया जो अभी तक श्रृंगार में चढ़ता है। और उनकी और से अखंड घृतदीप प्रारम्भ किया गया जो उनके वंशजो द्वारा अबतक जारी है
अब कहिये जय माता दी जी










गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

आरासुरी अम्बिकाजी : Aarasuri Ambika Ji : Sanjay Mehta Ludhiana








आरासुरी अम्बिकाजी

पुराणो में लिखा है कि श्री विष्णुभगवान के चक्र से कट-कटकर देवी के देह के पृथक - पृथक अवयव भूतल पर स्थान-स्थान पर गिरे और गिरते ही वे पाषाणमय हो गये। भूतल के ये स्थान महातीर्थ और मुक्तिक्षेत्र हो गये। ये सिद्धपीठ कहलाते है और देवताओं के लिए भी दुर्लभ परदेश है। अर्बुदारण्य प्रदेश के आरासुर (आरसन) नाम के रमणीय पर्वत शिखर पर श्री अम्बिकाजी का भुवनमोहन स्थान विद्यमान है। यहाँ सतीके ह्रदय का एक भाग गिरा था। अतएव उसी अंग कि पूजा अब भी होती है

छोटे छोटे बच्चे भी श्री माता जी की कृपा से पैदल आनंदपूर्वक खेलते-कूदते चले जाते है , मार्ग में बालको कि 'जय अम्बे, जय अम्बे' कि ध्वनि बहुत ही प्यारी लगती है। आबूरोड स्टेशन से तीन मील की दूरीपर एक तेलिया नामक नदी मिलती है। जिसको तेल लगाना या तेल का बना हुआ पदार्थ खाना होता है , वह यही लगा -खा लेता है क्युकि इसके आगे तेल का व्यवहार बिलकुल ही नहीं होता। इसके आगे बारह मील की दूरी पर पर्वत की तलहटी में बसे हुए घर मिलते है , जिसे श्री अम्बिकाजी का नगर कहते है , नगर में प्रवेश करने पर श्री हनुमान मंदिर तथा भैरव मंदिर मिलता है।

आरासुर पर्वत के सफेद होने के कारण श्री अम्बिका जी 'ढोल गढ़वाली' माता के नाम से पुकारी जाती है , भगवती जी का मंदिर संगमरमर पत्थर से बना हुआ है और बहुत ही प्राचीन है

गुजरात प्रांत भर के बच्चो का मुंडन संस्कार प्राय: यहाँ ही होता है। कहते है कि श्री कृष्ण भगवान् का मुंडन - संस्कार यही हुआ था। गुजरात में कदाचित ही कोई ग्राम होगा जहाँ इस पीठ के उपासक ना हो। उपासको में केवल हिन्दू ही नहीं , बल्कि पारसी, जैन और मुसलमान आदि भी है। यहाँ पर सहस्त्रो मनुष्यों कि कामनाये माता जी कि कृपा से पूरी हो जाती है। पुत्रहीनो को पुत्र की प्राप्ति होती है , धनहीनों को धन की , रोगियो को स्वास्थ्य कि प्राप्ति होती है। मनौती करनेवाले कि जब मनोकामना पूरी हो जाती है तो वह जब तक श्री माता जी का दर्शन नहीं कर लेता, तबतक कोई नियम ले लेता है और प्राणपण से उसका पालन करता है

मंदिर में जिनका पूजन होता है , वे महादेव जी कि पत्नी हिमाचल और मैना जी की पुत्री दुर्गा देवी है। इनको 'भवानी' अर्थात काम करने के शक्ति या 'अम्बा' यानि जगत की माता भी कहते है , यह मंदिर बहुत प्राचीन है। आंगन में जो चौके जड़े हुए है , वे इतने घिस गये है कि उन्हें देखकर सहज ही मालुम हो जाता है कि मंदिर कितना पुराना है और कितने लोग माताजी के दर्शन करने आते है

माता जी का दर्शन सबेरे ८ बजे से लेकर १२ बजे तक होता है , भोजन का थाल रखने के बाद बंद हो जाता है और फिर शाम को सूर्यास्त के समय बड़े ठाट के साथ आरती होती है। उस समय बहुत भीड़ होती है। मंदिर में बेशुमार छत्र और सभामंडप में बहुत से घंटे लटकते हुए दिखायी देते है , जिन्हे श्रद्धालु यात्रियों ने लगवाया है। आरती के समय दर्शनार्थी यात्री इन सब घण्टो को बजाते हुए ध्यानमग्न हो जाते है

माता जी को तीनो समय तीन तरह कि पोशाक पहनायी जाती है। इससे वे सबेरे बाला, दोपहर को युवा और शाम को वृद्धा के रूप में दिखायी देती है। इसी से कहा गया है

जैसे दिल से देख लो , देखो वैसा रूप।
ब्र्हमरूप से देखकर देखो बरह्मसवरूप।।

वास्तव में माता जी की कोई आकृति नहीं है, केवल एक बीसायंत्र है , जो श्रंगार कि विभिन्नता के कारण ऐसा दिखायी देता है।

जब तक यात्री माता जी के दरबार में रहते है , तबतक खाने, जलाने और सिर में लगाने के काम में तेल कि जगह घी का ही व्यवहार किया जाता है। पति -पत्नी साथ आने पर भी यहाँ जबतक रहते है , ब्र्हमचार्य का पालन करते है

रजसवला स्त्री और सूतक लगे हुए लोग माता जी के चाचर में नहीं जा सकते। ऐसे लोगो के रहने के लिए अलग धर्मशालाएं बनी है। यदि कोई रजसवला स्त्री चाचर में चली जाती है तो रात के समय जलते हुए घी में धड़ाका होने लगता है और उसमे से ज्वाला और धुआं निकलने लगता है , जब रजसवला स्त्री वहाँ से चली जाती है तब ये उपद्रव शांत हो जाते है , इसी प्रकार दिन के समय माता जी के मंदिर पर लगे हुए तीनो त्रिशूल डोलने लगते है (अब कहिये जय माता दी जी )


माता जी को थाल रखने वालो को कोठारी से पहले ही आज्ञा पत्र लेना पड़ता है , आज्ञा पत्र मिल जाने पर पूजारी एक चांदीका बरतन देता है और उसी में रखकर भोग की सामग्री एक निश्चित समय पर ली जाती है।

माता जी के चाचर में हिन्दू के सिवा अन्य कोई जाति का कोई आदमी नहीं जा सकता। कुछ समय पूर्व एक यूरोपियन सज्जन आये थे। कहते है कि रोके जाने पर भी उन्होंने माता जी की परीक्षा के लिए चाचर पर जाना चाहा। वे सीढ़ियों पर चढ़ ही रहे थे कि अकस्मात ऐसे गिरे मानो किसी ने उठाकर नीचे फेंक दिया हो। उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। तब से ऐसे अन्यधर्मी सज्ज्नों के दूर से दर्शन कि सुविधा के लिए सामने चाचर से दूर एक ऊँची बैठक बना दी गयी है , वहाँ से ये लोग दर्शन कर सकते है। (अगर कोई गलती हो तो क्षमा प्रार्थी है जय माता दी जी फिर से कहिये जय माता दी जी )












बुधवार, 11 दिसंबर 2013

"जो जाय गब्बर वह हॊ जब्बर। " : Jo Jaye Gabbar Vh Ho Jabbar :) Sanjay Mehta Ludhiana








"जो जाय गब्बर वह हॊ जब्बर। "


गब्बर पर जाने का मार्ग बहुत ही कठिन है, परन्तु श्रद्धाबल से बहुत छोटे-छोटे बच्चे भी उस पर चढ़ जाते है।
उपर्युक्त गब्बर शिखर के विषय में एक कथा प्रसिद्ध है , कहते है, पुरातन काल में एक ग्वाल की गायो में माता जी की गाये भी अज्ञातरूप से जंगल में चरने जाती थी। बहुत दिनों तक चराई नहीं मिलने के कारण एक दिन सायंकाल को वह ग्वाला उस गाय के पीछे-पीछे उसके मालिक के घर चला। वह गाये के साथ एक सुंदर मंदिर के पास आ पहुंचा। मंदिर में एक दिव्या रमणी सुंदर वस्त्र पहने झूले पर झूल रही थी। ग्वाले के चराई मांगने पर उसने कुछ जौ उसके कंबल में डाल दिए। ग्वाल असंतुष्ट होकर जौ बाहर फैंककर चलता बना। घर पहुँचने पर उसने सारा वृत्तांत अपनी स्त्री से कहा। स्त्री बुद्धिमती थी, ग्वाले कि बात सुनकर वह चकित हो गयी। उसने कंबल का वह कोना दिखलाने के लिए कहा जिसमें जौ डाला गया था। उसे देखते ही उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा , क्युकी कंबल में जौ के आठ दस दाने बच रहे थे वह सोने के थे। पीछे ग्वाले ने बहुतेरा ढूँढा पर ना तो उसे वह मंदिर ही मिला और ना वह दिव्या रमणी ही दीख पड़ी। बेचारा पछताकर रह गया।

'गब्बर' पर चढ़ने के रास्ते पर एक मील के बाद एक गुफा आती है। उसे 'माई का द्वार' कहते है। सुनते है कि इसी द्वार से भगवती के मंदिर में जाना होता था। पर्वत के भीतर देवी का एक मंदिर है उसमे देवी का झूला है , सुनते है भक्तो को कभी - कभी आज भी देवी के झूले कि ध्वनि सुन पड़ती है। द्वार तो सत्ययुग में ही बंद हो गया था , ऐसी जनश्रुति है

'गब्बर' के शिखर पर तीन स्थान है। एक माता जी के खेलने कि जगह। यहाँ पत्थर पर पैर की छोटी - छोटी अँगुलियों के चिन्ह दीख पड़ते है। दूसरा स्थान पारस-पीपला है और तीसरा श्रे कृष्ण भगवान् का ज्वारा है। इसी स्थान पर यशोदा जी ने श्री कृष्ण जी का मुंडन करवाया था।
जय माता दी जी









मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

अम्बे : Ambe : By Sanjay Mehta Ludhiana









अम्बे

जननी तृप्त होती लख लाल-मुख-लाली को , अम्बे! तुम्हे कैसे प्रिय रक्त रक्त-धारा है?
मेधा-सवरूपा सब मानवों में रहती तुम्हे, मदिरा, ग्राम्यधर्मादि कैसे तुम्हे प्यारा है ?
हरती हो सदासे दुष्ट-दानवोके प्राणोको, बकरोंके प्राण लेना काम क्या तुम्हारा है ?
मै तो सोचता हु, मति-मन्द विषयसक्तोका, शाकम्भरी! यहाँ बुद्धि-विभ्रम हमारा है
कैसे वैपरीत्य, हैम होते हुए भी शाक्त, सर्वथा निशक्त आज भारत में हो गये
वे कीर्ति, श्री, वाक्,स्मृति, मेधा,धृति,क्षमा प्रभूति, सारे-के-सारे गुण हमारे आज खो गये
अब भी कृपाण क्या चलाते उन छागोंपर, जब कि प्रचंड शत्रु चारो और हो गये
चण्डिके! जगा दो आज अपने प्रिय पुत्रोको, उषा-काल में जो अलसाकर है सो गये
जय माता दी जी










रविवार, 8 दिसंबर 2013

सत्यदेव राजा की कथा : satyadev raja ki katha : Sanjay Mehta, Ludhiana











महाभारत में सत्यदेव राजा की कथा है। लक्ष्मी चंचल है। वह किसी -न-किसी पीढ़ी के हाथो से चली है जायेगी। एक दिन प्रात:काल सत्यदेव जब जगा तो अपने घर से एक सुंदरी को बाहर जाते हुए देखा। राजा को आश्चर्य हुआ। उसने स्त्री से पूछा कि वह कौन है। उसने उत्तर दिया कि मेरा नाम लक्ष्मी है, मै अब तेरे घर से जा रही हु। राजा ने अनुज्ञा दी।

कुछ देर बार एक सुंदर पुरष घर से निकला। राजा ने जब उससे पूछा कि वह कौन है, तो उसने कहा कि वह दान है। जब लक्ष्मी जी यहाँ से चली गयी तो तुम दान कैसे कर सकोगे? सो मै लक्ष्मी के साथ ही जा रहा हु। राजा ने उसे भी जाने दिया। फिर एक तीसरा पुरष बाहर जाने लगा . उसने बतया कि वह सदाचार है, जब लक्ष्मी और दान ही ना रहे तो मै रहकर क्या करूँगा। राजा ने उसे भी जाने कि अनुमति दे दी। फिर एक सुंदर पुरष को बाहर जाते हुए देखा। पूछने पर उसने अपना नाम बतया कि वह यश है। वह बोलो - 'जहाँ लक्ष्मी , दान, और सदाचार ना हो वहाँ मै नहीं रह सकता ' राजा ने उसे भी जाने दिया।

कुछ देर बार एक और सुंदर युवक घर से निकलकर जाने लगा। पूछने पर उसने अपना परिचय दिया वह सत्य है। जब आपके यहाँ लक्ष्मी , दान , सदाचार और यश नहीं रहे तो मै अकेला कैसे यहाँ रहूँगा ? मै भी उनके साथ जाऊँगा , तो सत्यदेव राजा ने कहा कि मैंने तो आपको कभी छोड़ा ही नहीं फिर आप मुझे क्यों छोड़कर जा रहे हो। आपकोअपने पास रखने के लिए ही मैंने लक्ष्मी - यश आदि का त्याग किया है। मै आपको जाने नहीं दूंगा . आप मुझे छोड़कर चले जायेंगे तो मेरा तो सर्वस्व लुट जायेगा। राजा कि इस प्रकार कि प्रार्थना के कारण सत्य नहीं गया और जब सत्य ही नहीं गया तो लक्ष्मी , दान, सदाचार और यश भी राजा के घर वापस लौट आये।

जहाँ सत्य होता है , वहाँ लक्ष्मी, दान, सदाचार और यश को आना ही पड़ता है , बिना सत्य के ये सब व्यर्थ है। इसलिए यह सपष्ट है कि सत्य ही सर्वस्व है बाकी कि चार सम्पत्तियां चली जाए तो कोई चिंता नहीं, किन्तु सत्य नहीं जाना चाहिए, सत्य रहेगा तो सब कुछ रहेगा। राजा हरिश्चंद्र जी ने सत्य का साथ नहीं छोड़ा , धर्मराज युधिष्टर जी ने सत्य का साथ नहीं छोड़ा। जय माता दी जी








शनिवार, 7 दिसंबर 2013

शिव के पांच आवरणों में स्थित सभी देवताओं की स्तुति तथा उनसे अभीष्टपूर्ति एवं मंगलकी कामना




















आप अद्भुत है, आपकी जय हो. आप महान है आपकी जय हो. आप अक्षत(निर्विकार) है, आपकी जय हो. आप अविनाशी है. आप की जय हो. अप्रमेय परमात्मन! आपकी जय हो. मायारहित महेश्वर! आपकी जय हो. अजन्मा शिव! आपकी जय हो. निर्मल शंकर , आपकी जय हो. संजय मेहता



महाबाहो! महासार ! महागुण ! महती कीर्तिकथा से युक्त ! महाबली महामायावी! महान रसिक तथा महारथ !… आपकी जय हो आपकी जय हो. जय माता दी जी


आप परम आराध्या को नमस्कार है. आप परम कारण को नमस्कार है. शांत शिव को नमस्कार है और आप परम कल्याणमय प्रभु को नमस्कार है

देवताओ और असुरोसाहित यह सम्पूर्ण जगत आपके अधीन है अत: आपकी आज्ञा का उल्लंगन करने में कौन समर्थ हो सकता है



हे सनातन देव! यह सेवक एकमात्र आपके ही आश्रित है; अत: आप इस पर अनुगृह करके इसे इसकी प्रार्थित वास्तु प्रदान करे



अम्बिके! जगन्मात:! आपकी जय हो सर्वजगन्मयी! आपकी जय हो. असीम ऐश्वर्यशालिनी! आपकी जय हो. आपके श्रीविग्रेह की कही उपमा नहीं है. आपकी जय हो। जय माता दी जी



मन, वाणीसे अतीत शिवे! आपकी जय हो! अज्ञानान्धकार का भंजन करनेवाली देवि ! आपकी जय हो . जन्म और जरासे रहित उमे! आपकी जय हो. काल से भी अतिशय उत्कृष्ट शक्तिवाली दुर्गे ! आपकी जय हो
जय माता दी जी



अनेक प्रकार के विधानोंमें स्थित परमेश्वरी! आपकी जय हो , विश्वनाथ प्रिये! आपकी जय हो। समस्त देवताओ कि आराधनीय देवि ! आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्व का विस्तार करनेवाली जगदम्बिके आपकी जय हो जय हो। जय माता दी जी



मंगलमय दिव्या अंगोंवाली देवि ! आपकी जय हो! मंगलो को प्रकाशित करनेवाली! आपकी जय हो। मंगलमय चरित्रवाली सर्वमंगले! आपकी जय हो। मंगलदियिनी माँ। आपकी जय हो माँ आपकी जय हो


परम कल्याणमय गुणोंकी आप मूर्ति है, आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत आपसे ही उत्पन हुआ है, अत: आपमें ही लीन होगा जय माता दी जी



देवेश्वरी! अत: आपके बिना ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं हो सकते। यह जन जन्मकाल से ही आपकी शरण में आया हुआ है। अत: देवि आप अपने इस भक्त का मनोरथ सिद्ध कीजिये। जय माता दी जी


प्रभो! आपके पांच मुख और दस भुजाएँ है। आपकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकमणिके समान निर्मल है। वर्ण, ब्र्हम और कला आपके विगृह्रूप है। आप सकल और निष्कल देवता है। शिवमूर्ति में सदा व्याप्त रहनेवाले है। शान्त्यतीत पदमें विराजमान सदाशिव आप ही है। मैंने भक्तिभाव से आपकी अर्चना की है। आप मुझे प्रार्थित कल्याण प्रदान करे। . जय माता दी जी


सदाशिवके अङ्कमे आरूढ़ , इच्छा शक्तिसवरूपा , सर्वलोकजननी शिवा मुझे मनोवांछित वास्तु प्रदान करे --- जय माता दी जी



शिव और पार्वती के प्रिय पुत्र , शिव के समान प्रभावशाली सर्वज्ञ तथा शिव - ज्ञानामृत का पान करके तृप्त रहनेवाले देवता गणेश और कार्तिकेय परसपर स्नेह रखते है। शिवा और शिव दोनों से सत्कृत है तथा ब्र्ह्मा आदि देवता भी इन दोनों देवो का सर्वथा सत्कार करते है। यह दोनों भाई निरतंर सम्पूर्ण लोको कि रक्षा करने के लिए उद्य्त रहते है और अपने विभिन्न अंशोद्वारा अनेक बार स्वेच्छापूर्वक अवतार धारण करते है। वे ही ये दोनों बंधू शिव और शिवा के पार्श्वभाग में मेरे इस प्रकार पूजित हो उन दोनों की आज्ञा ले प्रतिदिन मुझे प्रार्थित वास्तु प्रदान करे। .... जय माता दी जी



जो शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल, ईशान नाम से प्रसिद्ध और सदा कल्याण सवरूप है, परमात्मा शिव कि मूर्धाभिमानिनी मूर्ति है , शिवार्चनमें रत, शांत , शान्तयातीत कलामे प्रतिष्ठित , आकाशमण्डल में स्थित शिव - पंचाक्षर का अंतिम बीज - सवरूप , पांच कलाओंसे युक्त और प्रथम आवरण में सबसे पहले शक्ति के साथ पूजित है, वह पवित्र परबर्हम मुझे मेरी अभीष्ट वास्तु प्रदान करे - जय माता दी जी


जो प्रात: काल के सूर्य की भाँती अरुण प्रभा से युक्त , पुरातन, तत्पुरष नाम से विख्यात , परमेष्ठी शिव के पूर्ववर्ती मुख का अभिमानी, शांतिकलासवरूप या शांति कला में प्रतिष्टित , वायुमण्डल में स्थित शिव- चरनर्चन-परायण, शिव के बीजों में प्रथम और कलाओंमें चार कलाओंसे युक्त है, मैंने पूर्वदिशा में भक्तिभाव से शक्तिसहित जिसका पूजन किया है, वह पवित्र परब्र्हम शिव मेरी प्रार्थना सफल करे -- जय माता दी जी



जो अंजन आदिके समान श्याम, घोर शरीरवाला एवं अघोर नाम से प्रसिद्ध है, महादेव जी के दक्षिण मुख का अभिमानी तथा देवाधिदेव शिव के चरणोका पूजक है , विद्यक्ला पर आरूढ़ और अग्निमंडल के मध्य विराजमान है, शिवबीजो में द्वितीय तथा कलाओ में अष्टकलायुक्त एवं भगवान् शिव के दक्षिणभाग में शक्ति के साथ पूजित है, वह पवित्र परबर्ह्म मुझे मेरी अभीष्ट वास्तु प्रदान करे --- जय माता दी जी



जो कुमकुमचूर्ण अथवा केसरयुक्त चंदन के समान रक्त-पीत वर्णवाला , सुंदर वेषधारी और वामदेव नाम से प्रसिद्ध है, भगवान् शिव के उत्तरवर्ती मुख का अभिमानी है, प्रतिष्ठकलामें प्रतिष्ठित है, जल के मण्डल में विराजमान तथा महादेवजी की अर्चना में ततपर है , शिवबीजोमें चतुर्थ तथा तेरह कलाओसे युक्त है और महादेवजी के उत्तरभाग में शक्ति के साथ पूजित हुआ है, वह पवित्र परबर्ह्म मेरी प्रार्थना पूर्ण करे। जय माता दी जी


जो शंख , कुंद और चंद्रमा के समान धवल , सौम्य तथा स्ध्योजात नाम से विख्यात है, भगवान् शिव के पश्चिम मुख का अभिमानी एवं शिवचरणो kii अर्चना में रत है , निवृत्तिकलामे प्रतिष्ठित तथा पृथ्वी मण्डल में स्थित है, शिवबीजो में तृतीया , आठ कलाओं से युक्त और महादेव जी के पश्चिम भाग में शक्ति के साथ पूजित हुआ है, वह पवित्र परबर्ह्म मुझे मेरी प्रार्थित वस्तु दे। जय माता दी जी


शिव और शिवाकी ह्रदयरूपी मूर्तियाँ शिवभाव से भावित हो उन्ही दोनों के आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मनोरथ पूर्ण करे। जय माता दी जी


जो वृषभों के राजा महातेजस्वी, महान , मेघके समान शब्द करनेवाले, मेरु, मंदराचल, कैलास और हिमालय के शिखर की भांति ऊँचे एवं उज्ज्वल वर्णवाले है, श्वेत बादलो के शिखर की भांति ऊँचे ककुद से शोभित है, महानागरज (शेष) के शरीर की भांति जिनकी शोभा बढ़ाती है, जिनके मुख , सींग और पैर भी लाल है, नेत्र भी प्राय: लाल ही है, जिनके सारे अंग मोटे और उन्नत है, जो अपनी मनोहर चाल से बड़ी शोभा पाते है, जिनमे उत्तम लक्षण विद्यमान है, जो चमचमाते हुए मणिमय आभूषण से विभूषित हो अत्यंत दीप्तिमान दिखायी देते है, जो भगवान् शिव को प्रिय है, और शिव में ही अनुरक्त रहते है, शिव और शिवा दोनों के ही जो ध्वज और वाहन है तथा उनके चरणो के सपर्श से जिनका पृष्ठभाग परम पवित्र हो गया है, जो गौओ के राजपुरष है, वे श्रेष्ठ और चमकीला त्रिशूल धारण करनेवाले नंदिकेश्वर वृषभ शिव और शिवा की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करे। । जय माता दी जी



जो गिरिराजनान्दिनी पार्वती के लिए पुत्र के तुल्य प्रिय है, श्री विष्णु आदि देवताओंद्वारा नित्य पूजित एवं वन्दित है , भगवान् शंकर के अंत:पुर के द्वार पर परिजनो के साथ खड़े रहते है, सर्वेश्वर शिव के समान तेजस्वी है तथा समस्त असुरों को कुचल देने की शक्ति रखते है, शिवधर्म का पालन करनेवाले सम्पूर्ण शिवभक्तो के अध्यक्षपदपर जिनका अभिषेक हुआ है, जो भगवान् शिव के प्रिय , शिव में ही अनुरक्त तथा तेजस्वी त्रिशूल नामक श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले है। भगवन शिव के शरणागत भक्तोपर जिनका स्नेह है तथा शिवभक्तो का भी जिनमे अनुराग है, वे महातेजस्वी नंदीश्वर शिव और पार्वती की आज्ञा को शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करे -- जय माता दी जी


दूसरे महादेव के समान महातेजस्वी महाबाहु महाकाल महादेव के शरणागत भक्तो की नित्य ही रक्षा करे जय माता दी जी

वे भगवान् शिव के प्रिय है , भगवान् शिव में उनकी आसक्ति हा तथा वे सदा ही शिव तथा पार्वती के पूजक है, इसलिए शिवा और शिव कि आज्ञा का आदर करके मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करे -- जय माता दी जी


जो सम्पूर्ण शास्त्रो के तात्विक अर्थ के ज्ञाता , भगवान् विष्णु के द्वितीय सवरूप , सबके शासक तथा महामहात्मा कद्रू के पुत्र है, मधु, फल का गुदा और आसव जिन्हे प्रिय है, वे नागराज भगवान् शेष शिव और पार्वती की आज्ञा को सामने रखते हुए मेरी इच्छा को पूर्ण करे -- जय माता दी जी


ब्र्ह्माणी , माहेष्वरी , कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री तथा प्रचण्ड पराक्रम शालिनी चामुण्डा देवी -- ये सर्वलोकजननी सात माताएं परमेश्वर शिव के आदेश से मुझे मेरी प्रार्थित वस्तु प्रदान करे -- जय माता दी जी


जिनका मतवाले हाथी सा मुख है , जो गंगा , उमा और शिव के पुत्र है , आकाश जिनका शरीर है, दिशाएँ भुजाएँ है, तथा चंद्रमा , सूर्य और अग्नि जिनके तीन नेत्र है, ऐरावत आदि दिव्या दिग्गज जिनकी नित्य पूजा करते है, जिनके मस्तक से शिवज्ञानमय मद की धारा बहती रहती है, जो देवताओं के विघ्न का निवारण करते है और असुर आदि के कार्यो में विघ्न डालते रहते है, वे विघ्नराज गणेश शिव से भावित हो शिवा और शिव की आज्ञा शिरोधार्य करके मेरा मनोरथ प्रदान करे -- जय माता दी जी


जिनके छः मुख है, भगवान् शिव से जिनकी उत्पत्ति हुई है, जो शक्ति और वज्र धारण करनेवाले प्रभु है, जो अग्नि के पुत्र तथा अर्पणा (शिवा) के बालक है, गंगा, गणामबा तथा कृत्तिकाओं के भी पुत्र है, विशाख, शाख और नैगमेय - इन तीनो भाइयो से जो सदा घिरे रहते है, जो इंद्र-विजयी, इंद्र के सेनापति तथा तारकासुर को परास्त करनेवाले है, जिन्होंने अपनी शक्ति से मेरु आदि पर्वतो को छेद डाला है जिनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है, नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान सुंदर है, कुमार नाम से जिनकी प्रसिद्धि है, जो सुकुमार के रूप के सबसे बड़े उदाहरण है, शिव के प्रिय , शिव में अनुरक्त तथा शिव - चरणो की नित्य अर्चना करनेवाले है , स्कन्द, शिव और शिवा कि आज्ञा शिरोधार्य करके मुखे मनोवांछित वस्तु दे - जय माता दी जी

सर्वश्रेष्ठ और वरदायिनी ज्येष्ठा देवी , जो सदा भगवान् शिव और पार्वती के पूजन में लगी रहती है, उन दोनों की आज्ञा मानकार मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करे -- जय माता दी जी


त्रैलोक्यवन्दिता , साक्षात उल्का (लुकाठी) जैसी आकृतिवाली गणाम्बिका , जो जगत की सृष्टि बढ़ाने के लिए ब्र्ह्मा जी के प्रार्थना करने पर शिव के शरीर से पृथक हुई शिवा के दोनों भोंहों के बीच से निकली थी, जो दाक्षायणी , सती, मेना तथा हिमवानकुमारी उमा आदि के रूप में प्रसिद्ध है , कौशिकी , भद्रकाली, अर्पणा और पाटलाकी जननी है , नित्य शिवार्चन में तत्पर रहती है एवं रुद्रवल्ल्भा रुद्राणी कहलाती है , वे शिव और शिवा की आज्ञा शिरोधार्य करके मुझे मनोवांछित वस्तु दे -- जय माता दी जी



हिम , कुन्द और चंद्रमा के समान उज्ज्वल, भद्रकाली के प्रिय, सदा ही मातृगणों की रक्षा करनेवाले, दुरात्मा दक्ष और उसके यज्ञ का सिर काटनेवाले, उपेन्द्र , इंद्र और यम आदि देवताओ के अंगोमे घाव कर देने वाले, शिव के अनुचर तथा शिव कि आज्ञा के पालक, महातेजस्वी श्री मान वीरभद्र शिव और शिवा के आदेश से ही मुझे मेरी मनचाही वस्तु दे - जय माता दी जी


महेश्वर के मुखकमल से प्रकट हुई तथा शिव - पार्वती के पूजन में आसक्त रहने वाले वे सरस्वती देवी मुझे मनोचांछित वस्तु प्रदान करे। । जी माता दी जी


तेरी ममता के सब भूखे, क्या सच्चे क्या झूठे माँ
बुरे-भले ये सभी तुम्हारे बगिया के है बूटे माँ
जय माता दी जी