रविवार, 22 जुलाई 2012

बुरा जो डून्डन मै चला..buraa jo doondan mai chalaa.











बुरा जो डून्डन मै चला...बुरा ना मिलेय कोई
जो दिल खोजा आपना...मुझ से बुरा न कोई
मै बुरा हाँ माई ...
मै बुरा हाँ माई ...


सरे जग्ग दीयां मेरे अंदर... मैया जी ने बुराइयां
फेरर वी मेनू चरणी लाया... तेरीयाँ बे-परवाइयां
मै बुरा हाँ माई ...सबणा तो
मै बुरा हाँ माई ...दाती माँ
मै बुरा हाँ माई ...

कदे वी तेरा ऩा नहीं लीता..कदे न शीश झुकाया
बुले-भटके , दाती तेरे बन्देयाँ नु गल्ल लाया
मै बुरा हाँ माई ...सबणा तो
मै बुरा हाँ माई ...दाती माँ
मै बुरा हाँ माई ...

फुल्लां दे न हार लेयाये ...ना प्रशाद चढाये
रुखा - मीस्सा घर विच्च बनया ...जो आवे खा जावे
मै बुरा हाँ माई ...सबणा तो
मै बुरा हाँ माई ...दाती माँ
मै बुरा हाँ माई ...

ना मै गंगा नाहवां दाती ...ना किसे तीरथ जावाँ
निन्देया -चुगली कदे ना कीत्ती ...सब दी खेर मनावाँ
मै बुरा हाँ माई ...सबणा तो
मै बुरा हाँ माई ...दाती माँ
मै बुरा हाँ माई ...

मै ,मै , मै मै हर कोई कहंदा ...तू ना आखे कोई
तू दे विच्च तेनु लब लीता ..तेरे जेया ना कोई
मै बुरा हाँ माई ...सबणा तो
मै बुरा हाँ माई ...दाती माँ
मै बुरा हाँ माई ...

चंचल नु समझावण आये
लोग ऐ बढे सयाने
राती जगेयें ते पीर सदावें ...राती जागण कुत्ते .... तेयन्थी उत्ते , भोंक नु बंद ओ मूल नाहोंदे ..ते जा रढी ते सुत्ते, मालिक आपणे दा दर्र ना छडदे ते भांवे वजण जुत्ते, उठ बुलेयाउठ पीर मणा लेय.... नहीं ते बाज़ी लेय गए सुत्ते
पर चंचल दे दिल विच्च की है
झंडेयांवाली जाने
मै बुरा हाँ माई ...सबणा तो
मै बुरा हाँ माई ...दाती माँ
मै बुरा हाँ माई ...

buraa jo doondan mai chalaa...buraa naa miley koee
jo dil khojaa aapanaa...mujh se buraa koi
mai buraa haan maaee ...
mai buraa haan maaee ...

sare jagg diiyaan mere andar... maiyaa jii ne buraaiyaan
pherar vii menoo charanii laayaa... teriiyaan be-paravaaiyaan
mai buraa haan maaee ...sabanaa to
mai buraa haan maaee ...daatii maan
mai buraa haan maaee ...

kade vii teraa naa nahiin liitaa..kade na shiish jhukaayaa
bule-bhatake , daatii tere bandeyaan nu gall laayaa
mai buraa haan maaee ...sabanaa to
mai buraa haan maaee ...daatii maan
mai buraa haan maaee ...

phullaan de na haar leyaaye ...naa prashaad chadaaye
rukhaa - miissaa ghar vichch banayaa ...jo aave khaa jaave
mai buraa haan maaee ...sabanaa to
mai buraa haan maaee ...daatii maan
mai buraa haan maaee ...

naa mai gangaa naahavaan daatii ...naa kise tiirath jaavaan
nindeyaa -chugalii kade naa kiittii ...sab dii kher manaavaan
mai buraa haan maaee ...sabanaa to
mai buraa haan maaee ...daatii maan
mai buraa haan maaee ...

Mai-Mai , mai-mai har koee kahandaa ...too naa aakhe koee
too de vichch tenu lab liitaa ..tere jeyaa naa koee
mai buraa haan maaee ...sabanaa to
mai buraa haan maaee ...daatii maan
mai buraa haan maaee ...

chanchal nu samajhaavan aaye
log Ae bade sayaane
raatii jageyen te piir sadaaven ...raatii jaagan kutte .... teyanthii utte , bhonk nu band O mool naa honde ..te jaa radii te sutte, maalik aapane daa darr naa chhadade te bhaanve vajan jutte, uth buleyaa uth piir manaa ley.... nahiin te baajii ley gaye sutte
par chanchal de dil vichch kii hai
jhandeyaanvaalii jaane
mai buraa haan maaee ...sabanaa to
mai buraa haan maaee ...daatii maan
mai buraa haan maaee ...

Sanjay Mehta








शनिवार, 21 जुलाई 2012

भगवान ने मिट्टी क्यों खायी : Bhagwan ne Mitti Kyu Khaai? By Sanjay Mehta Ludhiana









भगवान ने मिट्टी क्यों खायी


भगवान श्री कृष्ण कि दो पत्नियाँ बताई गई है - एक तो श्री देवी अर्थात लक्ष्मी जी और दूसरी भू देवी. जब भगवान लीला करने के लिए वृंदावन में अवतरित हुए, तो जब भगवान पहली बार भूमि पर पैर रखा क्योकि अब तक बाल कृष्ण चलना नहीं सीखे थे, तो पृथ्वी भगवान से बोली प्रभु ! आज आपने मुझ पर अपने चरण कमल रखकर मुझे पवित्र कर दिया. जब भगवान अपनी पत्नी भू देवी जी से बात करते, तो कोई ना कोई आ जाता, तो भगवान ने झट मिटटी का छोटा-सा टुकड़ा उठाया और मुख में रख लिया और बोले कि पृथ्वी अब तुम मुझसे, मेरे मुख में ही बात कर सकती हो,पृथ्वी का मान बढाने के लिए भगवान ने उनका भक्षण किया.


दूसरा कारण यह था कि श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्रह्माण्डो के जीव ब्रज-रज, गोपियों के चरणों की रज-प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो रहे थे. उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए भगवान ने मिटटी खायी.

भगवान स्वयं ही अपने भक्तो की चरण-रज मुख के द्वारा अपने हृदय में धारण करते है.क्योकि भगवानने तो स्वयं ही कहा है कि मै तो अपने भक्तो का दास हूँ जहाँ से मेरे भक्त निकलते है तो मै उनके पीछे पीछे चलता हूँ और उनकी पद रज अपने ऊपर चढ़ाता हूँ क्योकि उन संतो गोपियों कि चरण रज से मै स्वयं को पवित्र करता रहता हूँ

जय जय श्री राधे , जय माता दी जी
जय जय माँ, जय प्यारी माँ , जय राज रानी माँ, जय वैष्णवी माँ
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Sanjay Mehta








शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

भगवान कृष्ण के मुकुट में हमेशा मोर का ही पंख क्यों लगाया जाता है?: Bhagwan Krishan Ke Mukut Me More ka Pankh Kyu? By Sanjay mehta Ludhiana







भगवान कृष्ण के मुकुट में हमेशा मोर का ही पंख क्यों लगाया जाता है?

सारे देवताओं में सबसे ज्यादा श्रृंगार प्रिय है भगवान कृष्ण। उनके भक्त हमेशा उन्हें नए कपड़ों और आभूषणों से लादे रखते हैं। कृष्ण गृहस्थी और संसार के देवता हैं। कई बार मन में सवाल उठता है कि तरह-तरह के आभूषण पहनने वाले कृष्ण मोर-मुकुट क्यों धारण करते हैं? उनके मुकुट में हमेशा मोर का ही पंख क्यों लगाया जाता है?

इसका पहला कारण तो यह है कि मोर ही अकेला एक ऐसा प्राणी है, जो ब्रह्मचर्य को धारण करता है, जब मोर प्रसन्न होता है तो वह अपने पंखो को फैला कर नाचता है. और जब नाचते-नाचते मस्त हो जाता है, तो उसकी आँखों से आँसू गिरते है और मोरनी इन आँसू को पीती है और इससे ही गर्भ धारण करती है,मोर में कही भी वासना का लेश भी नही है,और जिसके जीवन में वासना नहीं, भगवान उसे अपने शीश पर धारण कर लेते है.


वास्तव में श्री कृष्ण का मोर मुकुट कई बातों का प्रतिनिधित्व करता है, यह कई तरह के संकेत हमारे जीवन में लाता है.अगर इसे ठीक से समझा जाए तो कृष्ण का मोर-मुकुट ही हमें जीवन की कई सच्चाइयों से अवगत कराता है. दरअसल मोर का पंख अपनी सुंदरता के कारण प्रसिद्ध है. मोर मुकुट के जरिए श्रीकृष्ण यह संदेश देते हैं कि जीवन में भी वैसे ही रंग है जैसे मोर के पंख में है. कभी बहुत गहरे रंग होते हैं यानी दुख और मुसीबत होती है तो कभी एकदम हल्के रंग यानी सुख और समृद्धि भी होती है.जीवन से जो मिले उसे सिर से लगा लें यानी सहर्ष स्वीकार कर लें.


तीसरा कारण भी है, दरअसल इस मोर-मुकुट से श्रीकृष्ण शत्रु और मित्र के प्रति समभाव का संदेश भी देते हैं. बलराम जो कि शेषनाग के अवतार माने जाते हैं, वे श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं. वहीं मोर जो नागों का शत्रु है वह भी श्रीकृष्ण के सिर पर विराजित है. यही विरोधाभास ही श्रीकृष्ण के भगवान होने का प्रमाण भी है कि वे शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखते हैं.

ऐसा भी कहते है कि राधा रानी के महलों में मोर थे और वे उन्हें नचाया करती थी जव वे ताल ठोकती तो मोर भी मस्त होकर राधा रानी जी के इशारों पर नाचने लग जाती एक बार मोर मस्त होकर नाच रही थी कृष्ण भी वहाँ आ गए और नाचने लगे तभी मोर का एक पंख गिरा तो श्यामसुन्दर ने झट उसे उठाया और राधा रानी जी का कृपा प्रसाद समझकर अपने शीश पर धारण कर लिया

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भगवान माखन क्यों चुराते है ? : Bhagwan Makhan Kyu Churate Hai? By Sanjay Mehta Ludhiana











भगवान माखन क्यों चुराते है ?



भगवान की इस दिव्य लीला माखन चोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते है.उन्हे पहले समझना`चाहिये चोरी क्या वस्तु है,वह किसकी होती है,और कौन करता है.चोरी उसे कहते है जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजाने में ओर आगे भी वह जान ना पाए - ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है. भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के घर माखन लेते थे उनकी इच्छा से,गोपियों के अनजाने में नहीं -उनकी जान में,उनके देखते-देखते और आगे जनाने की तो बात ही नहीं -उनके सामने ही दौडते हुए निकल जाते थे.


दूसरी बात महत्त्व की ये है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान की नहीं है और वे उसकी चोरी करते है. गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान् का था ही, सारा जगत् ही उनका है. वे भला, किसकी चोरी कर सकते है ? हाँ चोर तो वास्तव में वे लोग है,जो भगवान की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते है और दंड के पात्र बनते है


'श्रीकृष्णगतप्राणा', 'श्रीकृष्ण रसभावितमति' गोपियों के मन की क्या स्थिति थी. गोपियों का तन-मन- धन - सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण का था.वे संसार में जीती थी श्रीकृष्ण के लिये,घर में रहती थी श्रीकृष्ण के लिये और घर के सारे काम करती थी श्रीकृष्ण के लिये उनकी निर्मल और योगिन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धि में श्रीकृष्ण के सिवा अपना कुछ था ही नहीं.श्रीकृष्ण के लिये ही ,श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर -श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे सुखी होती थी.प्रात:काल निंद्रा टूटने से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ करती थी,सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही करती थी यहाँ तक कि उनकी निंद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी स्वप्न और सुषुप्ति दोनो में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर और शांत लीला देखती और अनुभव करती थी.ये गोपियाँ पूर्व जन्म में ऋषि थे जो भगवान की लीलाओ का रसास्वादन करने के लिए ही वृंदावन में गोपी बनकर आये थे.


भक्तो का ह्रदय ही माखन है, जिसे भगवान चुराते है और फिर मटकी फोड देते है क्योकि जब ये मन भगवान का हो गया तो फिर इस देह रूपी मटकी का क्या काम इसलिए इसे भगवान फोड देते है "संत ह्रदय नवनीत सामना"


रात में दही ज़माते समय श्यामसुन्दर की माधुरी छबि का ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी ये अभिलाषा करते थी कि मेरा दही सुन्दर जमे,उसे विलोकर मै बढि़या-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीके पर रखूँ,जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सके.फिर मेरे प्राणधन अपने सखाओं के साथ लेकर हँसते हुए घर में आयेगे,आनन्द में मत्त होकर मेरे आगन में नाचे और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखो से देखकर जीवन सफल करुँ और फिर अचानक ही पकड़कर हृदय से लगा लूँ .सभी दृष्टियों से यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी, चोरी न थी,भगवान की दिव्य लीला थी असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान का प्रेम का नाम चोर रख दिया क्योकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही.

गोपी किसी का नाम नहीं है गोपी तो एक भाव है जिस तक कोई विरला ही पहुँच सकता है.

जय माता दी जी , जय जय श्री राधे

Sanjay Mehta
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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

वृन्दावन के एक संत की कथा है: Vrindavan ke ek Sant Ki Katha hai By Sanjay Mehta Ludhiana









वृन्दावन के एक संत की कथा है. वे श्री कृष्ण की आराधना करते थे. उन्होंने संसार को भूलने की एक युक्ति की. मन को सतत श्री कृष्ण का स्मरण रहे, उसके लिए महात्मा ने प्रभु के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ा की मै नन्द हु, बाल कृष्णलाल मेरे बालक है, वे लाला को लाड लड़ते, यमुना जी स्नान करने जाते तो लाला को साथ ले कर जाते. भोजन करने बैठते तो लाला को साथ लेकर बैठते. ऍसी भावना करते की कन्हैया मेरी गोद में बैठा है. कन्हैया मेरे दाढ़ी खींच रहा है. श्री कृष्ण को पुत्र मानकर आनद करते. श्री कृष्ण के उपर इनका वात्सल्य भाव था.

महात्मा श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे. सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही ना मिले. निष्क्रय ब्रह्म का सतत ध्यान करना कठिन है, परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है, महात्मा परमात्मा के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये, परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे . महात्मा ऍसी भावना करते की कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है, बाबा! मुझे केला दो, ऐसा कह रहा है. महत्मा मन से ही कन्हैया को केला देते. महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते. कन्हैया तो बहुत भोले है. मन से दो तो भी प्रसन्न हो जाते है. महत्मा कभी कभी शिष्यों से कहते की इस शरीर से गंगा स्नान कभी हुआ नहीं, वह मुझे एक बार कराना है. शिष्य कहते की काशी पधारो. महात्मा काशी जाने की तैयारी करते परन्तु वात्सल्य भाव से मानसिक सेवा में तन्मय हुए की कन्हैया कहले लगते - बाबा मै तुम्हारा बालक हु छोटा सा हु. मुझे छोड़कर काशी नहीं जाना. इस प्रकार महात्मा सेवा में तन्मय होते, उस समय उनको ऐसा आभास होता था की मेरा लाला जाने की मनाही कर रहा है. मेरा कान्हा अभी बालक है. मै कन्हैया को छोड़कर यात्रा करने कैसे जाऊ? मुझे लाला को छोड़कर जाना नहीं. महात्मा अति व्रद्ध हो गये. महात्मा का शरीर तो व्रद्ध हुआ परन्तु उनका कन्हैया तो छोटा ही रहा. वह बड़ा हुआ ही नहीं! उनका प्रभु में बाल - भाव हो स्थिर रहा और एक दिन लाला का चिन्तन करते - करते वे मृत्यु को प्राप्त हो गये.

शिष्य कीर्तन करते- करते महात्मा को श्मशान ले गये. अग्नि - संस्कार की तैयारी हुए. इतने ही में एक सात वर्ष का अति सुंदर बालक कंधे पर गंगाजल का घड़ा लेकर वहां आया. उसने शिष्यों से कहा - ये मेरे पिता है, मै इनका मानस - पुत्र हु. पुत्र के तौर पर अग्नि - संस्कार करने का अधिकार मेरा है. मै इनका अग्नि-संस्कार करूँगा. पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करना पुत्र का धर्म है, मेरे पिता की गंगा-स्नान करने की इच्छा थी परन्तु मेरे कारण ये गंगा-स्नान करने नहीं जा सकते थे. इसलिए मै यह गंगाजल लाया हु. पुत्र जिस प्रकार पिता की सेवा करता है, इस प्रकार बालक ने महात्मा के शव को गंगा-स्नान कराया. संत के माथे पर तिलक किया, पुष्प की माला पहनाई और अंतिम वंदन करके अग्नि-संस्कार किया, सब देखते ही रह गये, अनेक साध-महात्मा थे परन्तु किसी की बोलने की हिम्मत ही ना हुई. अग्नि-संस्कार करके बालक एकदम अंतर्ध्यान हो गया. उसके बाद लोगो को ख्याल आया की महात्मा के तो पुत्र था ही नहीं

बालकृष्णलाल ही तो महात्मा के पुत्र रूप में आये थे. महात्मा की भावना थी की श्री कृष्ण मेरा पुत्र है, परमात्मा ने उनकी भावना पूरी की, परमात्मा के साथ जीव जैसा सम्बन्ध बांधता है, वैसा ही सम्बन्ध से परमात्मा उसको मिलते है.

अब बोलिए जय माता दी. जय राधा रानी की. जय राज रानी की. जय माँ वैष्णो रानी की

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Sanjay Mehta








रविवार, 15 जुलाई 2012

भक्ति ऍसी करो: Bhakti Esi Karo : By Sanjay Mehta Ludhiana









भक्ति ऍसी करो, प्रभु के साथ प्रेम इस रीति से करो की भगवान को तुम्हारा स्मरण हो, भगवान तुमको याद करे, श्री कृष्ण भगवान स्वधाम पधारे, तब उन्होंने विधुर जी को तीन बार याद किया था, भगवान जिसको अपना कहकर अपनावे, उसका बेडा पार है, परमात्मा किसी जीव से जल्दी नहीं कहते की तू मेरा है. ठाकुर जी परीक्षा करेंगे और पीछे कहेंगे कि तू मेरा है. जीव मंदिर में जाकर भगवान से कहता है कि अपना सर्वस्व तुमको अर्पण करता हु , भगवान मै तुम्हारा हु. पीछे घर में जाकर बच्चो कि माँ से कहेगा कि मै तो तेरा हु . भगवान कहते है. बेटा! तेरा सर्वस्व क्या है, वह मै जानता हु. मंदिर में जो भगवान का था, वह घर आने बाद बच्चो कि माँ का हो जाता है. जगत में जब तक यह जीव किसी दुसरे का होकर रहता है, तब तक वह भगवान का हो सकता नहीं, जो परमत्मा के सिवाए अन्य किसी का भी नहीं, उसको ही परमात्मा अपनाते है
बोलिए जय माता दी -- फिर से बोलिए जय माता दी.
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Sanjay Mehta








शनिवार, 14 जुलाई 2012

श्री बांकेबिहारी की जय: Shree Banke Bihari Ki Jai By Sanjay Mehta Ludhiana










रामावतार में तो ये अतिशेय सरल है, रामजी खड़े रहते है तो भी सरलता से .. बालकृष्ण खड़े रहते है, कभी - कभी बांके होकर. इसलिए तो लाला का नाम पड़ा है बांकेबिहारीलाल
श्री बांकेबिहारी की जय
श्री कृष्ण सरल भी तो है, कन्हैया बहुत भोले है, बहुत प्रेमी है, लाला के लिए कोई थोडा माखन - मिश्री ले जाए तो कन्हैया प्रेम से आरोगते है के मेरे लिए माखन लाया है, कन्हैया बहुत सरल है , परन्तु ये जगत को बताते है की मै सरल के साथ सरल हु, परन्तु कोई बांका होकर आवे तो मै भी उसके साथ बांका हो जाता हु..
श्री राम तो सबके साथ सरल है, श्री कृष्ण सरल के साथ है, बांके के साथ बांके है, श्री राम तो रावण के साथ ही सरल है, श्री राम सज्जन - दुर्जन सबके साथ सरल है, जीव का अपराध रामजी देखते नहीं. श्री कृष्ण सज्जन के साथ सरल है, दुर्जन के साथ सरल नहीं है. सुदामा जी आँगन में आये है, ऐसा सुनकर श्री कृष्ण सिंहासन से कूद पड़े और सामने गये, सुदामा जी को आलिंगन किया, परमात्मा श्री कृष्ण सुदामा जी के चरण पखारते है और उनको गद्दी के उपर बैठते है , स्वयं नीचे बैठते है, सुदामा जी सच्चे ब्राह्मण है, इसलिए श्री कृष्ण उनके साथ अतिशेय सरल है, परन्तु श्री कृष्ण महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य के साथ सरल नहीं है. बांके है. सुदामा जी ब्राह्मण है और द्रोणाचार्य भी ब्राह्मण है. द्रोणाचार्य वेद-शास्त्रों में सम्पन्न ज्ञानी ब्राह्मण है
द्रोणाचार्य साधारण ब्राह्मण नहीं है. चार वेद और छ: शास्त्रों के ज्ञाता है, प्रभु ने विचार किया की बहुत ज्ञाता होने से क्या? वे स्वरूप को भूले हुए है. बहुत ज्ञानवान होकर पाप करे तो ठाकुर जी को गुस्सा आता है. जिसने ज्ञान पचाया है, वह कभी कपट करता नहीं, किसी के साथ अन्याय नहीं करता. कपट करने से ह्रदय बांका होता है. सच्चे ज्ञानी का लक्ष्ण यह है की उसका ह्रदय बहुत सरल होता है, कोमल होता है, और उसका व्यवहार शुद्ध होता है. द्रोणाचार्य जानते थे की युद्ध करना ब्राह्मण का धर्म नहीं, फिर भी वह युद्ध क्रते है, इनको अच्छी तरह खबर थी की दर्युधन अन्याय किया है , फिर भी द्र्युधन की सहायता करने के लिए वे युद्ध करते है.

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रविवार, 8 जुलाई 2012

दशरथ जी महाराज: Dashrath Ji Maharaj By Sanjay Mehta Ludhiana









रामायण में लिखा है कि दशरथ जी महाराज ने कभी रामजी को मुख से नहीं कहा कि तुम वन में जाओ. दशरथ जी महाराज कि जिह्वा कभी बोल सकती ही नहीं कि रामजी वन में जाए, दशरथ जी ने स्पष्ट आज्ञा दी नहीं. यह तो कैकयी जी ने कहा कि तुम्हारे पिता कि इच्छा है, आज्ञा है कि तुम वन में जाओ, तब रामजी बोले कि मेरे पिताजी जी ऍसी इच्छा है तो पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है -- पिताजी की आज्ञा से मै अग्नि में अथवा समुंदर में कूद पड़ने को तैयार हु, जहर भी पी जाने को तैयार हु
थोडा विचार करो की कैकयी जी ने राज्य भरत को भले ही दिया परन्तु रामजी को वनवास क्यों दिया? रामजी ने कोई अपराध किया नहीं, रामायण में लिखा है की एक बार नहीं , अनेक बार कैकयी जी ने अपने मुख से कहा है की "श्री राम निरपराध है.. श्री रामजी कोई भूल कर सकते नहीं. श्री राम मुझे सब से प्यारा है " तो भी कैकयी जी ने रामजी को वनवास दिया, परन्तु रामजी ने कैकयी जी से एक बार भी नहीं पूछा की मुझे वनवास क्यों देती हो.. माता-पिता की आज्ञा है, प्रभु को खबर मिली तो तुरंत उन्होंने आज्ञा का पालन किया, राजा दशरथ जी ने प्रत्यक्ष आज्ञा दी नहीं, केवल कैकयी जी के कहने मात्र से ही रामजी वन में चले गये. कैकयी जी की आज्ञा अयोग्य है, अनुचित है, परन्तु रामजी ने ऐसा विचार नहीं किया, रामजी तो मानते है की मै अपनी माता - पिता के अधीन हु. अपने माता - पिता की आज्ञा का उल्लंघन करने की मुझमे शक्ति नहीं. श्री रामचन्द्र जी मात -पितृ की भक्ति करनेवाला जगत मे कोई दिखाई देता नहीं. श्री रामचन्द्र जी की मात-पितृ भक्ति अनन्य है
बोलो सियावर रामचन्द्र की जय , जय राजरानी की जय. जय माँ वैष्णो रानी की जय. जय जय माँ. जय माता दी जी
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शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

श्री राम श्री लक्ष्मण प्रसंग : Shree Ram Lakshman Parsang








श्री राम सीता जी की शादी हो रही है. जनकपुरी में ऐसा रिवाज था की जमाईराज जीमने बैठे, उस समय कन्यापक्ष की स्त्रिया ढोलक बजावे और जमाई सुने. इस प्रकार गालिया देकर गावे , श्री राम चन्द्र जी बैठे थे एक स्त्री ने कहा - अरे सखियो अयोध्या की स्त्रियाँ बहुत ख़ास है, खीर खाती है, बालको को जनम देती है, कौशल्या जी ने खाई तो श्री राम जी हुए , केकई जी ने खाई तो भरत जी हो गये और सुमित्रा जी ने खाई तो लक्ष्मण और शत्रुघ्न हो गये.

रामजी ने सिम्त हास्य किया. कितने प्रेम से बोलती है, परन्तु लक्ष्मण जी को यह सुहाया नहीं, उनको खीझ चढ़ी की मेरी माता कौशल्या जी लिए ये लोग परिहास करती है, रामजी लक्ष्मण जी को समझाने लगे. तू क्यों खीझता है ? ये तो परिहास करती है, तू क्रोध मत कर. लक्ष्मण जी ने कहा, परन्तु बड़े भई! इन लोगो में ज्ञान की कमी है, विनोद भी विवेक से करना चाहिए, ये तो मन में जो आवे सों ही बोलती है, फिर लक्ष्मण जी ने कहा, हां अयोध्या की स्त्रियाँ तो बहुत अच्छी है की खीर खाकर बालको को जनम देती है, परन्तु ये जनकपुरी की स्त्रिया ऍसी करामाती है की इनको खीर खाने की भी जरूरत पड़ती नहीं, धरती फटने से ही छोकरिया जन्मती है :) तुम्हारे यहाँ तो ऐसा रिवाज है,
लक्ष्मण जी के ऐसा बोलने से सबको ऐसा विश्वास हो गया की बड़े भाई भोले भाले है, परन्तु ये बहुत प्रबल है, विनोद में भी कोई रामजी का कोई अपमान करे, यह लक्ष्मण जी सह सकते नहीं. जहाँ श्री राम है, वही श्री लक्ष्मण जी है

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Sanjay Mehta







मंगलवार, 3 जुलाई 2012

सदगुरु : Guru Purnima By Sanjay Mehta Ludhiana








इस संसार में जो आता है उसको सदगुरु की जरूरत है ही. शास्त्र में लिखा है कि जिसने गुरु बनाया नहीं, उसके घर का पानी भी पीना नहीं, जगत के किसी संत में तुमको सद्भावना हो तो तुम श्री महाप्रभु को गुरु मानो, भगवान शंकराचार्य स्वामी को गुरु मानो, जगत में जो संत हो गये है, उनमे से किसी भी संत को सदगुरु मान कर सेवा करो, परन्तु गुरु किये बिना रहना नहीं, जगत के जिन महापुरषों को परमात्मा का अनुभव हुआ है, उन सब को सदगुरु द्वारा ही प्रभु मिले है

सदगुरु कृपा करे तो सूक्ष्म मन शुद्ध होता है, तुम जप करो, तीर्थ यात्रा करो, यज्ञ करो, दान करो, देवदर्शन करो , कथा सुनो- इन साधनों से तुम्हारा स्थूल मन शुद्ध होगा, परन्तु सूक्ष्म मन सदगुरु कृपा करेंगे तो ही शुद्ध होगा, इसलिए सदगुरुदेव कि बहुत ही जरूरत है, कोई सिद्ध महापुरष माथे हाथ पधरावे कृपा करके अपनावे तो ही सूक्ष्म मन शुद्ध होता है ,

सदगुरु बगैर कल्याण नहीं, कोई सदगुरु चरण का आश्रय लेगा तो सदगुरु कृपा होगी, सदगुरु कृपा करेंगे तो मन - बुद्धि में रहने वाली वासना जाएगी, मन-बुद्धि शुद्ध होगी, मन-बुद्धि के अंदर का मल संत-सेवा बगैर जाता नहीं, मन पर सत्संग का, सेवा का अंकुश रक्खो , बुद्धि को कोई संत के चरणों में रक्खो , बुद्धि परमात्मा के साथ परिणय ना हो तब तक उसे किसी संत के साथ परिणय करा दो, किसी संत के अधीन रहो तो मन-बुद्धि शुद्ध होन्गे.

संत वे है जो मन को सुधारे, सम्पति देकर शिष्यों को सुखी करे वे सदगुरु नहीं, जो शिष्य के मन को सुधारकर शिष्य को सुखी करे वे ही सदगुरु है, कितने ही लोग तो ऐसा बोलते है, महाराज! मुझको आशीर्वाद दो , जिससे मुझको लाटरी लग जाए, कितने ही लोग साधू -संत के पास कुछ लौकिक स्वार्थ रखकर ही जाते है, किसी ने मुझे कहा कोई अंक बताओ, जो कुछ प्राप्त होगा उसे धर्म के कार्य करूँगा. अरे मेरा भगवान कोई भिखारी नहीं कि इस प्रकार पाप करवाकर पैसे ले, आजकल तो लोग ऍसी आशा रखते है . महाराज के आशीर्वाद से मेरे यहाँ पुत्र आवे और मुझे सम्पति मिले.

साधू-संत के पास लौकिक भाव से जो आता है उसे कुछ मिलता नहीं, सच्चा संत किसी दिवस भी सम्पति -संतति , संसार, सुख का आशीर्वाद देता ही नहीं , कारण कि ये जानते है कि अनके जन्म से जीव ये वस्तु प्राप्त करता ही आया है, संसार - सुख अनेक जन्म से भोगता ही आया है, इसको सम्पति मिलेगी तो यह बहुत प्रमादी होगा, विलासी होगा, आलसी होगा, इसमें इसका कल्याण नहीं, , अहित है, संतति, सम्पति, संसारसुख - ये विषयानन्द है, विषयानंद संत देते नहीं, संत तो भजनानन्द देतेहै.

सम्पति देकर सुखी करे, यह काम संत का नहीं. सच्चा संत सम्पति देता नहीं, सन्मति देता है, जो विकार, वासनाका नाश करते है, प्रभु के मार्ग में ले जाते है, भक्ति रंग लगाकर सुखी करते है, वे संत है, जिसके संग में आये पीछे तुम्हारे मन का संकल्प -विकल्प मन की विकार-वासना का नाश हो, प्रभु में कुछ प्रेम जागे तो मानना की ये संत है, सदगुरु है

सदगुरु सदा शिष्य का स्वभाव सुधारते है, सदगुरु सदा शिष्य के मन को सुधारते है, उसके मन में रहने वाली- विकार - वासना काविनाश करके उसके पापो को छुडाते है, और उसको भक्तिरस का दान करते है, सदगुरु की कृपा से ही मन सथिररूप में शांत रहता है, बुद्धि में विवेक जागता है, और ज्ञान स्थिरता आती है, संत बोलकर ही उपदेश देते है, ऐसा नहीं , संत मौन रखकर भी उपदेश देते है, संत की दिनचर्या से बोध मिलता है, संत का प्रत्येक व्यवहार ज्ञान भक्ति से भरा हुआ है

संसार में जो भी आता है, उसको सदगुरु की जरूरत है, संसार में आने के पश्चात् भगवान राम सदगुरु के चरण में बैठे है, भगवान श्री कृष्ण ने सान्दीपन ऋषि के चरण पकडे है, प्रभु ने गुरुदेव के घर में पानी भरा, गुरूजी की सेवा की है, इसी से श्री कृष्ण जगद्गुरु कहलाये है, श्री राम जगद्गुरु कहलाये है, श्रीराम जी बहुत बोलते नहीं, परन्तु रामजी की प्रत्येक क्रिया उप्देश्मय है, रामजी का जैसा बर्ताव रक्खो , रामजी जैसे चलते है, जैसा व्यवहार क्रते है, वैसा अपना जीवन बनाओ, रामजी हृदय के साथ अपना ह्र्ध्य एक करो , यह ही रामजी की उत्तम सेवा है .

Sanjay Mehta







सोमवार, 2 जुलाई 2012

गुरु पूर्णिमा: Guru Purnima : By Sanjay Mehta Ludhiana








Guru Poornima (गुरु पूर्णिमा) – July 3rd 2012
गुरु पूर्णिमा
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। यह पूर्णिमा ‘व्यास पूर्णिमा’ के नाम से भी जानी जाती है। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। पूरे भारत में यह पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है। इसीलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए हमें अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए ।
प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा अर्पण किया करते थे। इस दिन केवल गुरु ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि को भी गुरुतुल्य समझना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए ।
इस दिन प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ और शुद्ध वस्त्र धारण करें और अपने घर से गुरु आश्रम जाकर गुरु की प्रसन्नता के लिए अन्न, वस्त्र और द्रव्य से उनका पूजन करे । उसके उपरान्त ही उन्हें धर्म ग्रन्थ, वेद, शास्त्र तथा अन्य विद्याओं की जानकारी और शिक्षण का प्रशिक्षण मिल पाता था । इस प्रकार श्रद्धा पूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है । गुरु को समर्पित इस पर्व से हमें भी शिक्षा लेते हुए हमें उनकी पूजा करनी चाहिए और उनके प्रति ह्रदय से श्रद्धा रखनी चाहिए । यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वासों के आधार पर नहीं। गुरु पूजन का मंत्र है -
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
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Sanjay Mehta